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सज्दा-ए-सह्व का तरीक़ा किताब व सुन्नत की रौशनी में

सज्दा-ए-सह्व का तरीक़ा

सब तारीफें अल्लाह तआला के लिए ही हैं
सह्व का मतलब है “भूल जाना,ग़ाफिल हो जाना, दिल का दूसरी तरफ केन्द्रित होना
सज्दा सह्व असल में सूजूद अल्-सह्व है जिसका मतलब है नमाज़ में कोई भूल हो जाने पर दो सज्दे ज्यादा करना। उर्दू-हिन्दी की आम ज़बान में इसे सज्दा-ए-सह्व कहा जाता है। सज्दा ए सह्व अल्लाह तआला की मुसलमानों पर मेहरबानी,नरमी और आसानी का नमूना है। अगर नमाज़ में किसी कमी या ज्यादती या भूल चूक की वजह से पूरी नमाज़ ही बातिल (निष्कासित) क़रार दी जाती तो फिर से शूरू से नई नमाज़ पढ़ना पड़ता।

नमाज़ में तीन किस्म के कार्य शामिल हैं।
1. बहूत ज़रूरी : जिन के बग़ैर नमाज़ अदा ही नहीं होती मिसाल के तौर पर सूरह फातिहा।
2. जरूरी: जिन के रह जाने से सज्दा सह्व करना पड़ता है, अगर न करें तो नमाज़ पूरी नहीं होगी।
3. वह जिनके रह जाने पर सज्दा सह्व नहीं करना पड़ता है।

सज्दा सह्व वाज़िब है या सुन्नत:
कुछ फुक़हा ने इन सज्दों को वाज़िब और कुछ ने सुन्नत कहा है।
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नमाज़ में भूल चूक का शिकार हो जाने वाले नमाज़ी को हुक्म दिया कि “वह दो सज्दे कर ले” [सहीह बुखारी, 401]
इसलिए ये सज्दे वाज़िब हों या सुन्नत ! नमाज़ की कमी दूर करने के लिए ये सज्दे करने ही चाहिए।
बहुत से लोग नमाज़ में बहुत बार भूल जाते हैं या उन्हें वसवसा आता रहता है कि मालुम नहीं फलां रूक्न अदा किया कि नहीं? या फलां दुआ या तस्बीह कितनी बार पढ़ी ? याद रहे कि हर ख़्याल या वसवसा ऐसा नहीं कि उसे सज्दा सह्व अदा करने की वजह समझ लिया जाए।
शैख़ मुहम्मद बिन् सालेह अल्- उसैमिन् (रहिमहुल्लाह) फरमाते हैं कि तीन हालात में शक़ को कोई अहमियत् न दी जाए :
1. अगर नमाज़ के बीच वहम पैदा हो जिस की कोई बुनियाद नहीं होती जैसा कि वसवसा वगैरह आता है।
2. जब नमाज़ी को बकसरत वहम मैं पड़ जाने की बीमारी हो कि जब भी नमाज़ के लिए खड़ा हो तो वहम का शिकार हो जाए।
3. नमाज़ से फराग़त के बाद शक़ पड़ जाए तो उस की तरफ कोई तवज्जो न दी जाए। [अज़्-फतावा, अस्हाब अल्-हदीस, सफा-120]
इन तीन हालात के अलावा अगर शक़ पड़ जाए तो वह क़ाबिले ऐतबार होगा।
सज्दा-ए-सह्व करने का तरीक़ा:
पहला तरीक़ा:
1. नमाज़ पूरी कर के सलाम फेरने से पहले या सलाम फेरने के बाद अल्लाहु अकबर कह कर सज्दे में जाएँ।
2. सज्दे में सज़्दे वाली दुआएं और तस्बीहात में से जो भी पढ़ लें दुरूस्त है।
3.फिर अल्लाहु अकबर कह कर जलसा-ए-इस्तराहत करें
4. फिर अल्लाहु अकबर कह कर सज्दे में जाएं और सज्दे की तस्बीहात पढ़ें।
5. अल्लाहु अकबर कह कर सज्दे से सर उठा कर कादे कि शक़ल में बैठ जाएँ।
6.दाएँ और बाएँ सलाम फेर दें।

सज्दा-ए-सहु का तरीक़ा सहीह बूख़ारी की रिवायत किताबुस्सलात, 482 और मुस्लिम हदीस-573 में ज़ूल यदैन् की हदीस में बयान किया गया है।
दूसरा तरीक़ा :
कुछ ज़ईफ हदीसों से ये तरीक़ा भी मिलता है:
1. नमाज़ के आख़िर में सलाम फेरने से पहले उसी तरह दो सज्दे कर ले जिस तरह ऊपर बयान किया गया है।
2. उन दो सज्दों के बाद कादे में बैठ कर तशह्हुद पढ़ कर दुआएं पढ़ें और सलाम फेरें। अबू दाऊद-1039,तिर्मिज़ी-393,इर्वा अल्-ग़लील-403 वग़ैरह में ये तरीक़ा बयान किया गया है लेकिन इस तरीक़े को बयान करने वाली तमाम अहादीस ज़ईफ हैं।

इब्न सीरीन रहिमहुल्लाह से पूछा गया:क्या सह्व के सज्दे के बाद तशह्हुद है ?” उन्होंने जवाब दिया:अबू हूरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी हदीस में तशह्हुद का ज़िक्र नहीं है।” [सहीह बुखारी, हदीस-1228]

निष्कर्ष :
सज्द-ए-सह्व के बाद सलाम फेर लेना ही अफज़ल है क्योंकि ये तरीक़ा सहीह अहादीस से साबित है।
सज्द-ए-सह्व के बाद तशह्हुद पढ़ कर सलाम फेरने से भी सज्द-ए-सह्व हो जाता है हालांकि ये तरीक़ा ज़ईफ अहादीस से लिया गया है। [देखिए अल्-दुरर अल्-बहिय्या अज़ इमाम शौकानी, तहक़ीक़ व इफादात अज़ अल्लामा अलबानी]

सज्दा-ए-सह्व का ग़लत तरीक़ा :
तशह्हुद, दरूद और दुआ के बाद सिर्फ एक ही तरफ सलाम फेर कर सज्द-ए-सह्व करना साबित नहीं, सूनन तिर्मिज़ी की हदीस -395 से इसकी दलील दिया जाता है लेकिन यह हदीस शाज़ है। [तहक़ीक़ अल्लामा अलबानी,देखिए फिक़्ह अल्-हदीस, तशरीह अल्-दुरर अल्-बहिय्या अज़-इमाम शौकानी]

सज्दा-ए-सह्व कब करना चाहिए ?
मुहद्दिसीन और फूक़हा की इस बारे में मुख़्तलीफ राय है जो मन्दरजा ज़ेल हैं:
सलाम के बाद सज्दा-ए-सह्व किया जाए, यह इमाम नख़अी, इमाम सौरी,इमाम हसन और उमर बिन् अब्दुल अज़ीज़ की राय है।
सलाम से पहले किया जाए, यह इमाम मकहुल, इमाम ज़ुहरी, इमाम औज़ाअी,इमाम शाफअी और इमाम लैस की राय है।
नमाज़ में ज़यादती की सूरत में सलाम के बाद और कमी की सूरत में सलाम से पहले किए जाएँ, यह इमाम मालिक बिन् अनस,इमाम अबू सौर, इमाम मुज़नी की राय है। इमाम अहमद की राय यह है कि सज्दा-ए-सह्व के बारे में जो कुछ अहादीस में है उसी तरह किया जाए।

निष्कर्ष :
सलाम से पहले और सलाम फेरने के बाद दोनों तरह जायज़ है।
चाहे सलाम फेरने के बाद बाते भी कर चुके हैं तो भी सज्दा-ए-सह्व कर लिया जाए।
चाहे नमाज़ की जगह से उठ कर किसी दूसरी जगह पर भी जा चूके हैं तो भी सज्दा-ए-सह्व कर लिया जाए।
याद आने पर या किसी के बताने पर सज्दा-ए-सह्व कर लिया जाए।

ज़्यादा रक्अतें पढ़ जाने पर :
अब्दुल्लाह बिन् मसअूद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जुहर की नमाज़ पाँच रकअ्त पढ़ाया तो आप से कहा गया : “क्या नमाज़ में इज़ाफा(बढ़ोतरी) कर दिया गया है?” आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया : “वह क्या ?” सहाबा ने कहा: “आप(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पाँच रक़अ्त नमाज़ पढ़ी है” तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सलाम के बाद दो सह्व के सज्दे किए [सहीह बुखारी 1226,मुस्लिम 572]

एक रिवायत में है कि (सहाबा के ध्यान दिलाने पर)…. आप(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) क़िब्ला की तरफ हुए और दो सज्दे किए, फिर सलाम फेरा और हमारी तरफ हो कर फरमाया : “मैं भी तुम्हारी तरह इन्सान हूँ और मैं भी भूलता हूँ जैसे
तुम भूलते हो, इसलिए जब मैं भूल जाया करूँ तो मूझे याद दिला दिया करो।” [सहीह बुख़ारी 401,मुस्लिम 572]

निष्कर्ष :
अगर कोई चार रक्अत नमाज़ की बजाए पाँच रक्अत पढ़ ले तो वह सज्दा-ए-सह्व करे।
इमाम अबू हनीफा और इमाम सौरी की राय के मुताबिक़ अगर चौथी रक्अत में तशह्हुद नहीं बैठा और पाँचवी रक्अत के लिए खड़ा हो गया तो उस की नमाज़ फासिद हो जाएगी।
जबकि दूसरे तमाम फुक़हा की राय यह है कि नमाज़ फासिद नहीं होगी, वह पाँचवी रक्अत पढ़ कर सज्दा-ए-सह्व कर ले।
इमाम अबू हनीफा कहते हैं कि अगर चौथी रक्अत भी मुकम्मल कर ले इस तरह ये चार रक्अत फर्ज़ और दो रक्अत नफ्ल हो जाएँगी।

अगर पहले तशह्हुद में बैठना याद न रहे :
मुग़ीरा बिन् शअ्बा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : जब कोई आदमी दो रक्अतों के बाद (तशह्हुद पढ़े बग़ैर) खड़ा होने लगे और अभी पूरी तरह खड़ा नहीं हुआ हो तो बैठ जाए,लेकिन अगर पूरी तरह खड़ा हो गया तो फिर न बैठे और सलाम फेरने से पहले सह्व के दो सज्दे कर ले। [अबू दाऊद, 1036]

अब्दुल्लाह बिन् बहीना रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सहाबा किराम को ज़ूहर की नमाज़ पढ़ायी, और पहली दो रक्अतें पढ़ कर खड़े हो गए,(कअ्दे में) सहुअन् न बैठे, लोग रसूलुल्लाह
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ खड़े हो गए और (आख़िरी कअ्दे में सलाम फेरने का वक़्त आया) तो लोग सलाम फेरने का इन्तिज़ार करने लगे, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तक़बीर कही जब कि आप बैठे हुए थे। आप
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सलाम फेरने से पहले दो सज्दे किए फिर सलाम फेरा। [बुख़ारी, 829,मुस्लिम-570]

निष्कर्ष :
अगर दो रक्अत नमाज़ के आख़िरी तशह्हुद में बैठना याद न रहे और खड़ा हो जाए तो अगर अभी पूरा खड़ा नहीं हुआ तो बैठ जाए और नमाज़ मुकम्मल कर के सलाम फेर ले, इस सूरत में सज्दा सह्व नहीं है।
अगर तशह्हुद में बैठने की बजाए पूरा खड़ा हो गया तो अब ये तिसरी रक्अत पूरी करने के बाद तशह्हुद बैठ कर सलाम फेरने से पहले सह्वके दो सज्दे कर ले।
तीन या चार रक्अत के पहले तशह्हुद में बैठना याद न रहे तो अगर पूरा उठने से पहले याद आ गया तो वह दोबारा बैठ जाए और तशह्हुद कर ले, अगर मुकम्मल क़ियाम में खड़ा हो चूका है तो अब तशह्हुद न बैठे बल्कि नमाज़ मुकम्मल करे, और सलाम फेरने से पहले सह्वके दो सज्दे कर ले।

अगर चार रक्अत नमाज़ के पहले तशह्हुद में बैठना याद न रहे तो नमाज़ मुकम्मल चार रक्अत पढ़ने के बाद सलाम फेरने से पहले सह्व के दो सज्दे कर ले ।

अगर कोई रक्अत रह जाए :
अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ज़ूहर या अस्र की नमाज़ पढ़ायी और दो रक्अत पढ़ कर सलाम फेर दिया, कुछ सहाबा (नमाज़ पढ़ कर) मस्जिद से बाहर आ गए और कहने लगे कि क्या नमाज़ कम हो गयी है ? एक सहाबी ज़ूल यदैन रज़ियल्लाहु अन्हु ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सवाल किया कि क्या आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) भूल गए या नमाज़ कम हो गयी है ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया: न मैं भूला हूँ और न ही नमाज़ कम हूई है। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा किराम से पूछा : “क्या ज़ूल यदैन सच कहता है ?” उन्होंने कहा : “हाँ” फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आगे बढ़े और छूटी हुई नमाज़ पढ़ी, फिर सलाम फेरा, फिर दो सज्दे किए,फिर सलाम फेरा। [सहीह बुख़ारी 482, मुस्लिम 573]

नमाज़ से फारिग़ हो कर बातें कर चुकने के बाद :
इमरान बिन् हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अस्र की नमाज़ पढायी, और तीन रक्अत पढ़ कर सलाम फेर दिया और घर तशरीफ ले गए,एक सहाबी ख़िरबाक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सह्व (भूलने) का ज़िक्र किया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तेज़ी से लोगों के पास पहुँचे और ख़िरबाक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की बात की तस्दीक़ चाही, लोगों ने कहा ख़िरबाक़ रज़ियल्लाहु अन्हु सच कहते हैं, फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक रक्अत (नमाज़) और पढ़ायी, फिर सलाम फेरा और दो सज्दे किए, फिर सलाम फेरा। [सहीह मुस्लिम, 574]

निष्कर्ष :
अगर कोई रक्अत रह जाए तो जितनी रक्अत रह गयी हैं, याद आ जाने पर दोबारा उतनी रक्अतें पढ़ने के बाद सलाम फेरने से पहले सज्दा सह्व कर लें।

अगर शक़ हो कि कितनी रक्अतें पढ़ी हैं :

अबू सईद खुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है , रसूलुल्लाहु (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया जब तुम में से किसी को नमाज़ के दौरान शक़ पड़ जाए कि उसने कितनी रक्आत पढ़ी हैं, तीन या चार, ऐसी सूरत में शक़ को नज़र अन्दाज़ कर के जिस पर यक़ीन हो उस पर नमाज़ की बुनियाद रखे, फिर सलाम फेरने से पहले सह्व के दो सज्दे कर ले। अगर उस ने पाँच रकआत पढ़ ली हैं तो ये सज्दे उस की चौथी रक्अत के क़ायम मक़ाम होंगे और अगर वह पहले ही नमाज़ पूरी कर चुका है तो ये सज्दे शैतान की ज़िल्लत और रूसवायी का कारण होंगे। [मुस्लिम, किताब अल्-मसाजिद, 175]

अब्दुर्रहमान बिन् औफ (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया: “जिस शख़्स को नमाज़ में ये शक़ पड़ जाए कि उसने एक रक्अत पढ़ी है या दो तो वह उस को एक रक्अत यक़ीन कर ले और बाक़ी की नमाज़ पूरी कर ले और जिस को यह शक़ हो कि उसने दो रक्अत पढ़ी हैं या तीन तो वह उस को दो रक्अत यक़ीन कर ले और फिर (आख़िरी कअ्दे में) सलाम फेरने से पहले (सह्व के) दो सज्दे कर ले।”
[तिर्मिज़ी 398,इब्न माज़ा 1209]

निष्कर्ष :
जितनी रक्अतें पढ़ने का यक़ीन हो उतनी संख्या को मान कर के बाक़ी की रक्अतें पूरी कर ले और सलाम फेरने से पहले सज्दा सह्व कर ले।
सोच विचार कर ले और अगर रक्अतों की संख्या पर विश्वास न हो तो फिर कम संख्या को ज़हन में रख कर बाक़ी नमाज़ पूरी कर के सलाम फेरने से पहले सह्वकर के दो सज्दे कर ले।
[देखिए अद्-दूरर अल्-बहियया, अलाम- 244/1,अल्-बदाय वल्-सनाय् 1/168]

सूरह अल्-फातिहा या बिस्मिल्लाह भूल जाने पर :
सूरह फातिहा के बगै़र रक्अत नहीं होती, बिस्मिल्लाह भी सूरह फातिहा का हिस्सा है इसलिए इन दोनों को भूल जाए तो:
“अगर क़ियाम ही में याद आ गया तो दोबारा तस्मिया से क़िरात शुरू कर ले।” अगर बाद में याद आया तो इस रक्अत को अमान्य समझ कर आख़िर में और एक रक्अत पढ़ सज्दा सह्व कर ले। [अज़् मौलाना मुब्बशिर अहमद रब्बानी]

रूकूअ़ भूल जाने पर :
अगर अभी सज्दे में नहीं गए और याद आ गया तो रूकूअ़ कर लें। अगर सज्दे में चले जाने के बाद याद आाय तो अब इस रक्अत को शुमार न करें और आख़िर में और एक रक्अत का इज़ाफा कर लें, क्योंकि रूकूअ़् न हो तो रक्अत नहीं होती। [मौलाना मुब्बशिर अहमद रब्बानी] और सलाम फेरने से पहले सह्व के दो सज्दे भी कर लें।

सज्दा भूल जाने पर :
अगर कियाम में पूरा खड़ा होने से पहले याद आ गया तो सज्दे में चला जाए वरना आख़िर में सलाम फेरने से पहले सह्व के दो सज्दे कर ले।
अगर तशह्हुद बैठ गए और दो मिनट बाद याद आया तो सज्दा कर ले नहीं तो आख़िर में सह्व के दो सज्दे कर ले।

वित्र में दुआए कुनूत पढ़ना भूल जाने पर:
वित्र में दूआए कुनूत अगर पढ़ना याद न रहे तो इस पर सज्दा-ए-सह्व नहीं है क्योंकि दुआए कुनूत पढ़ना वाजिब नहीं। बग़ैर दुआए कुनूत के भी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने वित्र की नमाज़ पढ़ी है। [देखिए- फतावा सिराते मुस्तकीम, मौलाना अहमद मीर पूरी,स-232]

अगर इमाम भूल जाए :
अगर इमाम भूल जाए तो इमाम के साथ मुक़तदी भी सज्दा सह्व करेंगे। देखिए [सहीह बुख़ारी, 829, मुस्लिम-570,इबने माजा,1206]

अगर मुक़तदी भूल जाए तो वह अकेला सज्दा सह्व करेगा। [अल्-मुहल्ला अज़् इमाम इब़्न हज़म,161/3]

अगर इमाम सिर्री नमाज़ में जहरी क़िरात कर बैठे:

अहतियात यही है कि सिर्री नमाज़ में भूल कर ज़ुहरी क़िरात करने पर सज्दा सह्व कर लिया जाए। [फतावा सिराते मुस्तक़ीम, सफा-189 मौलाना मुहम्मद अहमद मीर पूरी रहिमहुल्लाह]

किन चीज़ों के भूल जाने पर सज्दा सह्व नहीं :
* तकबीर-ए-तहरीमा के बाद सना और नमाज़ की शुरूआती दुआएँ भूल जाने पर।
* तअव्वुज़ भूल जाने पर
* सूरह फातिहा के बाद क़िरात करना भूल जाने पर [मौलाना मुबश्शिर अहमद रब्बानी]

* रफअ् यदैन न करने पर
* रूकूअ् में सज्दे वाली तस्बीह पढ़ जाने पर।
* सज्दे में रूकूअ़ वाली तस्बीह पढ़ जाने पर ।
* जलसा-ए-इस्तिराहत में जम कर न बैठने पर।
* तशह्हुद में उँगली को उठाने या हरकत न देने पर
* आखिरी क़ाअ्दे में दरूद के बाद दुआएँ न पढ़ने पर।
* वित्र में दुआए कुनूत न पढ़ने पर।
* दूसरी तरफ सलाम न फेरने पर।

[स्रोत- उम्मे अब्द-मुनीब की किताब सज्दा-ए- सह्व से लिया गया]