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सहाबा किराम की आलोचना और उनके बीच के मतभेद

सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाह अलैहिम) की आलोचना और उनके बीच हुए मतभेदों पर चर्चा से दूर रहना चाहिए

अल्लाह तआला फरमाता है:
और जो मुहाजिर (मक्का से मदीना आए हुए लोग) और अन्सार (मदीना के मूल निवासी) पहले हैं, और जितने लोग बगैर किसी गर्ज से उन के पैरोकार हैं, अल्लाह उन सभी से खुश हुआ और वे सब अल्लाह से खुश हुए और (अल्लाह ने) उन के लिए ऐसे बाग का इन्तेजाम कर रखा है जिन के नीचे नहरें बहती हैं, जिन में वे हमेशा रहेंगे, यह बड़ी कामयाबी है। और कुछ तुम्हारे आस-पास के देहातियों में और अहले मदीना में ऐसे मुनाफिक़ है जो निफाक़ पर अड़े हुए हैं, आप उन को नहीं जानते उनको दोहरी सजा देंगे,फिर वे बहुत बड़े अजाब की तरफ भेजे जायेंगे। ” [सूरह तौबा, आयत-100-101]

इ्ब्न कसीर रहिमहुल्लाह फरमाते हैं:
यहाँ पर अल्लाह तआला हमें यह बता रहा है कि वह उन लोगों से राज़ी हो गया जिन्होंने पहले इस्लाम क़बुल किया मुहाज़िरीन और अन्सार में से और जिन्होंने भलाई के साथ उनकी इत्तेबा की, इसलिए लानत है उन लोगों पर जो उनसे नफरत करते हैं और गाली देते हैं, या वह जो उनमें से कुछ से नफरत करते हैं और कुछ को गाली देते हैं।” [तफ्सीर इब्न कसीर 4/203]

और जहाँ तक सहाब किराम रज़ियल्लाहु अलैहिम अजमईन के बीच इख्तिलाफ और लड़ाई की बात है तो हम सब को उसके बारे में बात करने से बचना चाहिए ,यह अक़ीदा रखते हुए कि वह लोग उम्मत के सबसे बेहतरीन लोग हैं और उनसे मुहब्बत करनी चाहिए। यही मसलख़ हमेशा से अहले-सुन्नत व जमात का रहा है।

हज़रत उमर बिन् अब्दुल अज़ीज(रहिमहुल्लाह) से सवाल किया गया कि अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) और मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बीच लड़ाई के बारे में आपका क्या विचार है, तो उन्होंने जवाब दिया: ” यह ऐसा खून है जिसको बहाने में अल्लाह ने मेरा कोई हाँथ नहीं रखा और मैं इसमें अपनी ज़बान गन्दी नहीं करना चाहता (इसके बारे में बात करके) ” [अत्-तबक़ात अल्-क़ुबरा, 5/394]
एक शख़्स ने इमाम अहमद (रहिमहुल्लाह) से हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बीच जो हुआ उसके बारे में सवाल किया तो इमाम अहमद ने उससे चेहरा फेर लिया ,उनसे कहा गया कि यह बनू हाशिम का शख़्स है, तो वह उस शख़्स की तरफ मुड़े और फरमाया : पढ़ो,यह उम्मत तो गुजर चूकी, जो उन्होंने किया वो उन के लिए है और जो तुम करोगे वह तु्म्हारे लिए है, उन के अमल के बारे में तुम से नहीं पूछा जायेगा” [सूरह बकरह आयत 2:134] [मनाक़िब अल्-इमाम अहमद इब्न जौज़ी, पेज-126]

अल्-मैमूनी ने कहा कि अहमद इब्न हंबल ने मुझ से फरमाया, ऐ अबुल् हसन, अगर तुम किसी को किसी सहाबी-ए-रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में बूरी बात कहते हुए सूनो तो उसके इस्लाम के बारे में यक़ीन न करो, अल्-फज़्ल इब्न ज़ियाद ने कहा, मैंने सुना कि अबु अब्दुल्लाह से उस शख़्स के बारे में पूछा गया जो हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अम्र बिन् आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) की आलोचना करता है, कि क्या उसे राफिज़ी कह सकते हैं? तो उन्होंने फरमाया उसकी उन लोगों की आलोचना करने की हिम्मत नहीं हो सकती सिवाए इसके कि उसके दिल में कुछ बूराई छुपी हुई हो। जो कोई भी किसी भी सहाबी-ए-रसूल(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आलोचना करता है तो उसके दिल में जरूर कुछ न कुछ बुराई छुपाई हुई होती है। [अल्-बिदाया वन्-निहाया,8/139]

अबू ज़रअ्ह अर्-राज़ी ने कहा:
अगर तुम किसी शख़्स को देखो कि वह किसी भी सहाबी-ए-रसूल(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आलोचना कर रहा हो तो जान लो कि वह बिद्अती है, क्योंकि हमारे हमारी नज़र में रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सच्चे हैं और क़ुरआन सच्चा है।और क़ुरआन और सून्नत सहाबा किराम के ज़रिए ही पहुँचाया गया है। ये लोग सहाबा किराम की फज़ीलत को कम करना चाहते हैं जिन्होंने क़ुरआन व सुन्नत को हम तक पहुँचाया है जिससे वो कुरआन सुन्नत की विश्वसनियता पर शक पैदा कर सकें।और ऐसे (बिद्अती) लोगों की आलोचना करना ही बेहतर है, ये लोग बिद्अती हैं।
[अल्-किफायाह फिल्-इल्म अर्-ऱिवायाह,पेज-49]

अल्-क़ुर्तुबी ने कहा :
किसी के लिए भी यह ज़ायज नहीं कि वह किसी भी सहाबी-ए-रसूल(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की किसी गलती की आलोचना करे क्योंकि उन लोगों का सारा अमल इज्तिहाद पर था, जो उनको सही लगा उन्होंने किया,उनकी नियत अल्लाह को राज़ी करने की थी, वो लोग हमारे लिए एक आदर्श उदाहरण है और अल्लाह तआला ने हमें मना फरमाया है उनके बारे में मतभेदों को उजागर करने को, और उनको हमेशा अच्छे तरीके से याद करना चाहिए क्योंकि वह अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथी हैं और रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनकी आलोचना करने से मना फरमाया है और उस से बढ़कर अल्लाह तआला ने उनको माफ कर दिया है और हमको फरमाया है कि वह(अल्लाह तआला) उन (सहाबा किराम) से राज़ी है।” [तफ़्सीर अल्-क़ुर्तुबी, 16/321]

इब्न अबि ज़ैद अल्-क़ैरावानी ने कहा :
किसी भी सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाह अलैहिम अजमईन) के बारे में अच्छी बात के सिवा कोई बात नहीं की जाए और हम सबको उनके बीच हुए मतभेदों के बारे में बातचीत करने से दूर रहना चाहिए। वो लोग सबसे बेहतर लोग हैं जिनके बातों और अमल को सबसे बेहतर तरीके से बयान किया जाना चाहिए और सबसे बेहतर तरीके से उनके बारे में सोचा जाना चाहिए” [अक़ीदाह अहलु-सुन्नह वल्-जमात फिस्-सहाबा अल्-किराम, 2/734]

अबु-अब्दुल्लाह इब्न बत्ताह (रहिमहुल्लाह) ने अहले सुन्नत वल्-जमात का अकीदा बयाना करते हुए कहा :
और इसके बाद हम सबको सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाह अलैहिम अजमईन) के बीच आपसी मतभेदों के बारे में बातचीत करने से दूर रहना चाहिए क्योंकि ये वह लोग हैं जिन्होंने रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ बड़े अज़ीम वाकियात को देखा और सबसे पहले लोग थे जिन्हें (ईमान की) फज़ीलत हासिल हुआ, अल्लाह ने उन्हें माफ कर दिया है और हमको उनके लिए मग्फिरत की दुआ करने और उनसे मुहब्बत के ज़रिए अल्लाह की नज़दीकी हासिल करने का हुक्म दिया है। वह(अल्लाह तआला) जानता था कि उनके(सहाबा किराम के) बीच क्या कुछ होगा और ये कि वह आपस में लड़ेंगे भी लेकिन फिर भी उनको सारी उम्मत पर फज़ीलत दी गई क्योंकि अल्लाह तआला ने उनकी सभी जानी-अनजानी गलतियों को पहले ही माफ कर दिया था और उनके बीच हुए सभी मतभेदों और झगड़ों को माफ कर दिया ” [किताब अश्-शरह वल्-इबानाह अला उसूल अस्-सुन्नह वद्-दियानाह, पेज-268]

अबू उस्मान अस्-साबोनी ने सलफ और उलमा-ए-हदीस़ का अकीदा बताते हूए फरमाया:
कि उनका अक़ीदा है कि हम सब को सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाह अलैहिम अजमईन) के मतभेदों को ज़िक्र करने से दूर रहना चाहिए और हमें कुछ ऐसा कहने से बचना चाहिए जो कि उनकी आलोचना माना जाए, हमें उनके लिए दुआ करनी चाहिए और उन सभी से मुहब्बत करना चाहिए।” [अक़ीदा अस्-सलफ व असहाब अल्-हदीस़, मजमूआ अर्-रसाईल अल्-मुनीरिय्याह,1/129 ]

शैख़ुल इस्लाम इब्न तैमियाह ने फरमाया :
अहले सुन्नत वल्-जमात का एक मूल सिद्धान्त है कि वो रसूलुल्लाहु (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाह अलैहिम अजमईन) के बारे में सबसे बेहतर तरीक़े से सोचते और बोलते हैं जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमाया है :
और (उन के लिए) जो उन के बाद आयें, जो कहेंगे कि हे हमारे रब ! हमें माफ कर दे और हमारे उन भाईयों को भी जो हम से पहले ईमान ला चुके हैं और ईमानवालों की तरफ से हमारे दिल में कपट(और दुश्मनी) न डाल, हे हमारे रब ! बेशक तू प्रेम और दया (रहम) करने वाला है। ” [सूरह अल-हश्र, आयत-10]
जैसा कि रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया है:
मेरे सहाबा को बूरा न कहो, मेरे सहाबा को बूरा न कहो, उस ज़ात की क़सम जिसके कब़्जे में मेरी जान है, अगर तुम उहुद पहाड़ के बराबर भी सोना (दान में) खर्च करो,तब भी यह उनके द्वारा खर्च किए गए एक मुद्द या आधा मुद्द के बराबर भी नहीं होगा’

वे लोग उस बात को स्वीकार करते हैं जो क़ुरआन और सुन्नत में कही गई है और सहाबा किराम की फज़ीलत और दर्जा जो दिया गया है उस को सभी लोग मानते हैं। वे लोग सहाबा किराम को गलतियों से पाक नहीं मानते और न यह समझते हैं कि उनसे छोटे या बड़े गुनाह नहीं हो सकते और यह भी हो सकता है कि उन लोगों ने सामान्य जीवन में गलतियाँ भी की होंगी लेकिन उन्होंने जो बड़ी संख्या में नेक(अच्छे) काम किया है उस से वो इस दर्जे पर पहुँचे कि अल्लाह तआला उनकी सभी गलतियों को माफ कर दिया और इस हद तक माफ किया कि उनकी बुरे कामों को भी माफ कर दिया जिस गलती को उनके बाद वालों में से किसी को भी माफ नहीं किया गया क्योंकि उन्होंने अच्छे काम ऐसे किए जिसने गुनाहों को मिटा दिया और उनके बाद वाले लोगों में किसी को ऐसी फज़ीलत नहीं हासिल हो सकी।

यदि उनमें से किसी ने कोई गुनाह का काम किया तो तुरन्त पश्चाताप किया या ऐसे नेक काम किए जिसने उनके गुनाहों को मिटा दिया या फिर ये गुनाह इसलिए भी माफ हो गए कि वो इस्लाम में सबसे पहले आने वाले लोग थे और ये उनकी फज़ीलत थी या फिर अल्लाह तआला ने उनके गुनाह को रसूलुल्लाह (सल्ल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दुआ की वजह से भी माफ कर दिया जिसके वो सबसे ज्यादा हक़दार थे …. । [मजमूअ्-अल्-फतावा, 3/152-153]

अल्-हाफिज़ इब्न हजर (रहिमहु्ल्लाह) ने फरमाया :
अहले सुन्नत इस बात पर पूरी तरह सहमत हैं कि किसी भी सहाबा किराम के बारे में कोई भी बूरी बात का विरोध करना जरूरी है क्योंकि उनके बीच जो भी (झगड़ा) हुआ वो उनका अपना इज्तिहाद था। और यदि किसी शख़्स को यह मालुम हो कि उनमें से कौन सही है फिर भी वह किसी के ख़िलाफ होने वाली बात का विरोध करेगा क्योंकि उन्होंने जो भी किया उसको सही समझा कर किया और अल्लाह तआला ने उस शख़्स को माफ कर दिया जिसने इज्तिहाद में गलती की हो. और हदीस से यह साबित है कि उसको एक सवाब मिलेगा और जो अपने इज्तिहाद में सही फैसला करेगा उसको दो सवाब मिलेंगे।
[फत्ह-अल्-बारी, 13/34]

स्रोत-Islamqa(dot)info website के फतावा से लिया गया है।