नियत के मसाईल
नियत के मसाईल
सब तारीफें अल्लाह तआला के लिए ही हैं।
नमाज़ सहीह होने के लिए नियत शर्त है, और नियत ज़रूर होनी चाहिए,शरीअत् में इसका मतलब यह है कि : “अल्लाह तआला की नज़दीकी हासिल करने के लिए इबादत करने का इरादा करना”
नियत नमाज़ शुरू करने से पहले करनी चाहिए।
नियत के दो हिस्से हैं, पहला ये कि काम किस के लिए करना है ?और दूसरा हिस्सा ये कि कौन सा काम करना है ? पहले का जवाब यह है कि नमाज़ ख़ालिस अल्लाह के लिए है, इसी को इख़लास कहते हैं। दूसरे का जवाब यह है कि फलां नमाज़ पढ़ने लगा हूँ, मसलन् फज्र या ज़ुहर या कोई दूसरी फर्ज़ या नफल, इतनी रकअते हैं, अदा है या कज़ा, ये पूरी तफसील ज़हन में होनी चाहिए। [अल्-काफी इब्न क़ुदामाह रहिमहुल्लाह, 1/275,276]
याद रखें कि इस नियत का महल और जगह दिल है, सिर्फ बन्दे का अपने दिल के साथ इस अमल का अज़्म और इरादा करना ही नियत है, इसलिए शरीअत नें अमल के इरादे के वक़्त नियत को ज़बान के साथ अदा करने को मशरूअ् नहीं किया, बल्कि नियत की ज़बान के साथ अदायगी उन इजाद करदह् बिदआत् में से हैं जो किताबुल्लाह और सुन्नत नबवी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) में साबित नहीं, और न ही सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाहि अलैहिम अजमअीन) में से किसी एक सहाबी से मनक़ूल है।[शरह मुमतअ् 2/283 ]
नमाज़ से पहले दिल में नियत करना लाज़मी है वरना नमाज़ नहीं होगी।
عن أمير المؤمنين أبي حفص عمر بن الخطاب رضي الله تعالى عنه قال: سمعت رسول الله صلى الله تعالى عليه وعلى آله وسلم يقول: “إنما الأعمال بالنيات ، وإنما لكل امرئ ما نوى، فمن كانت هجرته إلى الله ورسوله فهجرته إلى الله ورسوله، ومن كانت هجرته لدنيا يصيبها أو امرأة ينكحها فهجرته إلى ما هاجر إليه”
हजरत उमर बिन् अल्-खत्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के फरमाते हुए सुना है कि “अ’माल(कर्मों) का दारोमदार नियत पर है, हर शख़्स को वही मिलेगा जिस की उस ने नियत की, लिहाज़ा जिसने दुनिया हासिल करने की नियत से हिजरत किया उसे दुनिया मिलेगी या जिस ने किसी औरत से निकाह करने की ग़रज़ से हिजरत किया तो उसे औरत ही मिलेगी पस मुहाजिर की हिजरत का सिला वही है जिसके लिए उसने हिजरत की ।” [सहीह बुखारी, सहीह मुस्लिम]
नियत का मतलब इरादा है और इरादा करना दिल का काम है, ज़बान से नियत के अल्फाज़ कहना न रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से साबित है और न किसी सहाबी से , यहाँ तक कि किसी ताबई और इमाम ने इसे पसन्द नहीं किया।
इमाम इबने तैमिय्या (रहिमहुल्लाह) फरमाते हैं कि “अगर कोई इन्सान सैय्यदिना नूह (अलैहिस्सलाम) की उम्र के बराबर तलाश करता रहे कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाहि अलैहिम) में से किसी ने ज़बान से नियत की हो तो वह हरगिज़ कामयाब नहीं होगा,सिवाए सफेद झूठ बोलने के,अगर इसमें कोई भलाई होती तो सहाबा किराम सब से पहले करते और हमें बता कर जाते।“[इगासतुलल् हिफान,फसल अव्वल फी नियत फी तहारत व सलात, 156,नस्खा उख़रा 1/138]
लिहाज़ा साबित हुआ कि नियत दिल से करनी चाहिए, ज़बान से अल्फाज़ कहना रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और सहाबा किराम (रिज़वानुल्लाहि अलैहिम) से साबित नहीं है और यह अमल बे-असल और बिद्अत है और इस से परहेज़ लाज़मी है।
ज़बान से नियत करने के बारे मे शैख़ इब्न तैमिय्या (रहिमहुल्लाह) से सवाल किया गया तो उन्होंने फरमाया :
“तहारत यानि ग़ुस्ल या वुज़ू या तय्यमुम और नमाज़ रोज़ा और ज़कात और कफारात वग़ैरह दूसरी इबादात में बिल्इत्तफाक़ इन्सान ज़बान से नियत करने का मुहताज नहीं, बल्कि नियत दिल से होती है, इस पर सब आइमा का इत्तफाक़ है, इसलिए अगर इस ने अपनी ज़बान से दिल के मुख़ालिफ अल्फाज़ निकाले तो ऐतबार दिल का होगा न कि जो इस ने ज़बान से अल्फाज़ निकाले हैं।”
इस में दो राय पायी जाती हैं: –
पहला- असहाब अबू हनीफा और शाफअी और अहमद ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करने को मुस्तहब कहते हैं क्योंकि यह ज़्यादा ताकीदी है।
दूसरा- असहाब मालिक और अहमद वगैरह कहते हैं ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना मुस्तहब नहीं, क्योंकि ये बिदअत है, इस लिए कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इस का सबूत नहीं मिलता, और न ही सहाबा किराम से ऐसा करना साबित है, और न ही नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी उम्मत में से किसी को ज़बान से नीयत के अल्फाज़ अदा करने का हुक्म दिया है, और न किसी मुसलमान को इस की तअ्लीम दी ।
अगर यह शरीअत् में होता तो नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस में सुस्ती न करते, और ना ही सहाबा किराम इसे नज़र अन्दाज़ करते, जबकि उम्मत को इसकी हर दिन सुबह व शाम ज़रूरत थी।
यह दूसरी राय ज़्यादा सहीह है, बल्कि ज़बान से नियत की अदायगी तो अक़ली और दीनी दोनों तरह से नुक्स मालूम होता है, दीनी नुक्स इसलिए कि यह बिदअत है। और अक़ली नुक़्स इस तरह कि यह बिल्कुल खाना खाने की जगह है जैसे कोई खाना चाहे तो कहे:
मैं बरतन में हाँथ डालने और उस से लुक़्मा लेने की नियत करता हूँ और वह लुक़मा अपने मूँह में डाल कर चबाऊँगा, फिर इसे निगल लूँगा ता कि पेट भर सकूँ, अगर कोई ऐसा करे तो ये हिमाक़त और जहालत है।
और अल्लाह ही बेहतर इल्म रखने वाला है
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