रोज़ों के मसाईल
रोज़ों के मसाईल
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
अल्-स्याम(रोज़ा) अरबी में इसका शाब्दिक अर्थ है: किसी चीज़ से रूक जाना। और शरीअत के अनुसार प्रात:काल से लेकर सूर्यास्त तक अल्लाह के लिए रोज़ा की नीयत से उसको तोड़ने वाली चीज़ों से रूक जाना।
रोज़ा रखने की फज़ीलत
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया : “كل عمل ابن آدم له إلا الصيام فإنه لي وأنا أجزي به”
‘‘इब़्ने आदम का हर कार्य उसी के लिए है, सिवाय रोज़े के, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूँगा।’’ [बुखारी हदीस-1904,मुस्लिम, हदीस-1151]
अबू सईद अल-खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से मरफूअन रिवायत है कि :
“إن الله تبارك وتعالى عتقاء في كل يوم وليلة – يعني في رمضان – وإن لكل مسلم في كل يوم وليلة دعوة مستجابة“
‘‘हर दिन और रात में – यानी रमज़ान के महीने में – अल्लाह तबारका व तआला के कुछ जहन्नम से मुक्त किए हुए बंदे होते हैं,और हर मुसलमान के लिए प्रति दिन रात में एक मक़बूल (स्वीकृत) दुआ होती है।’’ [बज़्ज़ार, सहीहुत तरगीब (1/491)]
अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“الصيام جنة فلا يرفث ولا يجهل وإن امرؤ قاتله أو شاتمه فليقل إني صائم مرتين والذي نفسي
بيده لخلوف فم الصائم أطيب عند الله تعالى من ريح المسك يترك طعامه وشرابه وشهوته من أجلي الصيام لي وأنا أجزي به والحسنة بعشر أمثالها
“
‘‘रोज़ा ढाल है, अतः वह (यानी रोज़ेदार रोज़े की हालत में) अश्लील व अशिष्ट बातें न करे और अज्ञानता और मूर्खता के काम न करे, और अगर कोई व्यक्ति उससे लड़ाई-झगड़ा करे, या उससे गाली गलूज करे, तो उसे कहना चाहिए कि : मैं रोज़े से हूँ, मैं रोज़े से हूँ। उस ज़ात की क़सम ! जिसके हाथ में मेरी जान है, रोज़ेदार के मुँह की बू अल्लाह के नज़दीक कस्तूरी की सुगंध से ज्यादा अच्छी है, वह अपना खाना, पानी और कामवासना मेरी वजह से त्याग कर देता है, रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूँगा, और नेकी उसके दस गुना के बराबर हो जाती है।’’ [बुखारी, हदीस: 1894, मुस्लिम, हदीस: 1151]
तकलीफ़ी अहकाम (शरीयत द्वारा बाध्य किए गए प्रावधानों) के पाँच प्रकार हैंः वाजिब (अनिवार्य) हराम (निषिद्ध) मुस्तहब (वांछनीय) मकरूह (घृणास्पद) और मुबाह (अनुमेय)।
ये पांचों प्रावधान रोज़े में पाए जाते हैं, हम इन प्रावधानों में से प्रत्येक के तहत आने वाले सभी प्रावधानों का उल्लेख नहीं करेंगे। केवल हम उसी का उल्लेख करेंगे जो आसान है।
पहला- अनिवार्य रोज़ा
1- रमज़ान के रोज़े।
अल्लाह तआला का फरमान है –
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمْ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ
“ऐ ईमान वालो! तुमपर रोज़ा रखना फ़र्ज़ (अनिवार्य) कर दिया गया है, जैसे उन लोगों पर फ़र्ज़ (अनिवार्य) किया गया जो तुमसे पहले थे, ताकि तुम मुत्तक़ी (परहेज़गार) बन जाओ।” (सूरतुल-बक़रह :183)
2- रमज़ान की क़ज़ा को रोज़े।
अल्लाह तआला का फरमान है :
وَمَنْ كَانَ مَرِيضاً أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ
”और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।” (सूरतुल बक़राः 185)
3- कफ़्फारे (प्रायश्चित) के रोज़े (त्रुटि से की गई हत्या का कफ़्फारा, ज़िहार (जाहिली दौर के तलाक़ की एक पकार), रमज़ान के दिन में रोज़े की हालत में संभोग करने की वजह से अनिवार्य होने वाला कफ़्फ़ारा, क़सम का कफ़्फ़ारा)।
(ज़िहार का अर्थ है पति का अपनी पत्नी से यह कहना कि तू मुझ पर मेरी माँ की पीठ के समान है। इस्लाम से पूर्व अरब समाज में यह कुरीति थी कि पति अपनी पत्नी से यह कह देता तो पत्नी को तलाक़ हो जाती थी।)
अल्लाह तआला का फरमान है:
لا يُؤَاخِذُكُمُ اللَّهُ بِاللَّغْوِ فِي أَيْمَانِكُمْ وَلَكِنْ يُؤَاخِذُكُمْ بِمَا عَقَّدْتُمُ الأَيْمَانَ فَكَفَّارَتُهُ إِطْعَامُ عَشَرَةِ مَسَاكِينَ مِنْ
أَوْسَطِ مَا تُطْعِمُونَ أَهْلِيكُمْ أَوْ كِسْوَتُهُمْ أَوْ تَحْرِيرُ رَقَبَةٍ فَمَنْ لَمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلاثَةِ أَيَّامٍ ذَلِكَ كَفَّارَةُ أَيْمَانِكُمْ إِذَا حَلَفْتُمْ وَاحْفَظُوا أَيْمَانَكُمْ كَذَلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ
“अल्लाह तआला तुम्हारी लग्व कसमों पर तो तुम्हारी गिरफ्त नहीं फरमाएगा लेकिन जो क़सम तुम सच्चे दिल से खाते हो उन पर ज़रूर मुवाख़जा करेगा(अगर तुम ऐसी क़सम तोड़ दो तो) इस का कफ्फारा दस मिस्किनों का औसत दर्जे का खाना है जो तुम अपने अहल व अयाल को खिलाते है या उन का लिबास है या एक ग़ुलाम को आज़ाद करना है और जिसे मुयस्सर न हो वह तीन दिन के रोज़े रखे यह तुम्हारी क़समों का कफ्फारा है जब तुम क़सम उठा कर तोड़ दो और (बेहतर ही है कि) अपनी क़समों की हिफाज़त किया करो, अल्लाह तआला इसी तरह तुम्हारे लिए अपने अहकाम खोल कर बयान करता है ता कि तुम उसका शुक्रिया अदा करो। [सूरह मायदा, आयत-89]”
4- हज्ज तमत्तु करने वाले का रोज़ा जब वह क़ुर्बानी का जानवर न पाए, (अल्लाह तआला का फरमान हैः)
( فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ إِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ فَمَنْ لَمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلاثَةِ أَيَّامٍ فِي الْحَجِّ وَسَبْعَةٍ إِذَا رَجَعْتُمْ )
“फिर जो व्यक्ति हदी (क़ुर्बानी का जानवर) न पाए तो वह तीन रोज़े हज्ज के दिनों में रखे और सात रोज़े उस समय जब तुम घर लौट आओ।” (सूरतुल बक़रा : 196).
5- नज़्र (मन्नत) के रोज़े।
वैसे तो नज्र नहीं माननी चाहिए क्योंकि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस से मना फरमाया है
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :
“لَا تَنْذِرُوا ، فَإِنَّ النَّذْرَ لَا يَرُدُّ شَيْئًا مِنْ الْقَدَرِ ، وَإِنَّمَا يُسْتَخْرَجُ بِهِ مِنْ الْبَخِيلِ”
“तुम नज़्र न मानो, क्योंकि नज़्र तक़दीर में से कोई चीज़ नहीं फेर सकती है, बल्कि उसके द्वारा कंजूस से निकलवाया जाता है।”
लेकिन अगर किसी ने नज्र मान ली तो उसे पूरा करना चाहिए लेकिन अगर वह नज्र शरीअत के खिलाफ हो तो पूरा नहीं करना चाहिए।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :
“مَنْ نَذَرَ أَنْ يُطِيعَ اللَّهَ فَلْيُطِعْهُ ، وَمَنْ نَذَرَ أَنْ يَعْصِيَهُ فَلَا يَعْصِهِ”
“जिसने अल्लाह तआला की आज्ञाकारित की नज़्र मानी तो उसे चाहिए कि अल्लाह की आज्ञाकारिता करे, और जिसने उसकी अवज्ञा करने की नज़्रर मानी वह उसकी अवज्ञा न करे।” इसे बुखारी ने अपनी सहीह में रिवायत की है।
दूसराः मुस्तहब (वांछनीय) रोज़ेः
1- आशूरा (अर्थात् दस मुहर्रम) का रोज़ा।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :
“صِيَامُ يَوْمِ عَرَفَةَ أَحْتَسِبُ عَلَى اللَّهِ أَنْ يُكَفِّرَ السَّنَةَ الَّتِي قَبْلَهُ وَالسَّنَةَ الَّتِي بَعْدَهُ، وَصِيَامُ يَوْمِ عَاشُورَاءَ أَحْتَسِبُ عَلَى اللَّهِ أَنْ يُكَفِّرَ السَّنَةَ الَّتِي قَبْلَهُ “
“अरफा के दिन के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से आशा है कि वह उसे उसके बाद वाले साल और उस से पहले वाले साल के गुनाहों का कफ्फारा बना देगा। तथा आशूरा के दिन के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से आशा है कि वह इसे उस से पहले साल के गुनाहों का कफ्फारा बना देगा (सहीह मुस्लिम हदीस संख्या: 1162)
2- अरफ़ा के दिन का रोज़ा।
जैसा कि ऊपर की हदीस में गुजर चुका है कि अल्लाह तआला अरफ़ा के दिन के रोज़े को पिछले साल और आने वाले साल के गुनाहों का कफ्फारा बना देगा।
3- प्रत्येक सप्ताह सोमवार और गुरूवार (जुमेरात) का रोज़ा।
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया
“تُعرض الأعمال يوم الإثنين والخميس ، فأحب أن يعرض عملي وأنا صائم “
“सोमवार और जुमेरात को अमाल पेश किए जाते हैं, लिहाज़ा मैं चाहता हूँ के मेरे अमाल हों तो मैं रोज़े की हालत में हूँ।”[सुनन तिर्मीज़ी, हदीस-747, शैख़ अलबानी ने सहीह अल्-तरगीब हदीस-1041 में इसे सहीह क़रार दिया है। ]
4- हर महीने में तीन दिन का रोज़ा रखना।
अब्दुल्लाह इब्न अम्रो इब्न आस रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया
“وإن بحسبك أن تصوم كل شهر ثلاثة أيام؛ فإن لك بكل حسنة عشر أمثالها فإن ذلك صيام الدهر كله”
“तेरे लिए हर माह के तीन रोज़े रखना काफी है, क्योंकि तुम्हें हर नेकी का दस गुना सवाब मिलेगा तो इस तरह यह पूरे साल के रोज़े होंगे।” [सहीह बुख़ारी हदीस-1874,सहीह मुस्लिम हदीस-1159]
अबू ज़र रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया
“إذا صمت شيئاً من الشهر فصم ثلاث عشرة وأربع عشرة وخمس عشرة”
“अगर तुम महीने में कोई रोज़ा रखना चाहते हो तो तेरह,चौदह ,पन्द्रह कार रोज़ा रखो।” [सुनन तीर्मिज़ी हदीस-761,सुनन निसाई हदीस-2424, इमाम तीर्मिज़ी ने इस हदीस को हसन करार दिया है।]
5- शव्वाल के महीने में छह दिनों का रोज़ा रखना।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान तर्क है कि :
“مَنْ صَامَ رَمَضَانَ ثُمَّ أَتْبَعَهُ سِتًّا مِنْ شَوَّالٍ كَانَ كَصِيَامِ الدَّهْرِ”
“जिस व्यक्ति ने रमज़ान का रोज़ा रखा,फिर उसके पश्चात ही शव्वाल के महीने के छ: रोज़े रखे तो वह ज़माने भर (आजीवन) रोज़ा रखने के समान है।” (सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 1164)
6- शाबान के अक्सर दिनों का रोज़ा रखना।
” عَنْ أَبِي سَلَمَةَ قَالَ: سَأَلْتُ عَائِشَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهَا عَنْ صِيَامِ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَتْ: كَانَ يَصُومُ حَتَّى نَقُولَ قَدْ صَامَ، وَيُفْطِرُ حَتَّى نَقُولَ قَدْ أَفْطَرَ، وَلَمْ أَرَهُ صَائِمًا مِنْ شَهْرٍ قَطُّ أَكْثَرَ مِنْ صِيَامِهِ مِنْ شَعْبَانَ، كَانَ يَصُومُ شَعْبَانَ كُلَّهُ، كَانَ يَصُومُ شَعْبَانَ إِلا قَلِيلا”
मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने अबू सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : मैं ने आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के रोज़े के बारे में प्रश्न किया तो उन्हों ने उत्तर दिया :
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रोज़ा रखते थे यहाँ तक कि हम कहते कि आप ने रोज़ा रखा,और आप रोज़ा तोड़ देते थे यहाँ तक कि हम कहते कि आप ने रोज़ा तोड़ दिया। तथा हमने आप को किसी महीने में शाबान के महीने से अधिक रोज़ा रखते हुए नहीं देखा। आप पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे,आप पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे सिवाय कुछ दिनों को छोड़कर।
7- मुहर्रम के महीने में रोज़ा रखना।
अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“أَفْضَلُ الصِّيَامِ بَعْدَ رَمَضَانَ شَهْرُ اللَّهِ الْمُحَرَّمُ وأفضل الصلاة بعد الفريضة صلاة الليل “
“रमज़ान के महीने के बाद सबसे श्रेष्ठ रोज़े अल्लाह के महीना मुहर्रम के हैं,और फर्ज़ नमाज़ के बाद सर्वश्रेष्ठ नमाज़ रात की नमाज़ है।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या: 1163) ने रिवायत किया है।
8- एक दिन रोज़ा रखना और एक दिन रोज़ा न रखना, यह सब से श्रेष्ठ रोज़ा है।
सहीहैन में अब्दुल्लाह इब्न अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया
“إن أفضل الصيام صيام داود : كان يصوم يوماً ويفطر يوماً”
“सबसे अफज़ल रोज़े दाऊद(अलैहिस्सलाम) के रोज़े हैं,वह एक दिन रोज़ा रखते और एक दिन नहीं रखते थे।”
तीसराः मक्रूह (घृणित) रोज़ेः
1- अकेले शुक्रवार (जुमा के दिन) का रोज़ा रखना।
क्योंकि अल्लाह के पैगबंर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है किः
“لا تصوموا يوم الجمعة إلا أن تصوموا يوماً قبله أو يوماً بعده “
“अकेले शुक्रवार (जुमा के दिन) का रोज़ा न रखो सिवाय इसके कि तुम (शुक्रवार के साथ) एक दिन पहले या एक दिन बाद का भी रोज़ा रखो।” (सहीह बुखारी 1985 और सहीह मुस्लिम 1144).
2- अकेले शनिवार का रोज़ा रखनाः
क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः
“لا تَصُومُوا يَوْمَ السَّبْتِ إِلا فِيمَا افْتَرَضَ اللَّهُ عَلَيْكُمْ ، فَإِنْ لَمْ يَجِدْ أَحَدُكُمْ إِلا لِحَاءَ عِنَبَةٍ أَوْ عُودَ شَجَرَةٍ”
“शनिवार का रोज़ा न रखो सिवाय उसके जो अल्लाह तआला ने तुम पर फ़र्ज किया है। अगर तुम में से किसी को अंगूर की छाल या पेड़ की ठहनी के अलावा कुछ न मिले तो वह उसी को चबा ले।”
इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्याः 744) ने रिवायत किया है और हसन क़रार दिया है। तथा अबू दाऊद (हदीस संख्याः 2421) और इब्ने माजा (हदीस संख्याः 1726) ने रिवायत किया है और अल्लामा अल्बानी रहिमहुल्लाह ने इर्वाउल गलील (हदीस संख्या : 960) में इस हदीस को सहीह करार दिया है।
इमाम तिर्मिज़ी रहिमहुल्लाह कहते हैं किः
“इसमें कराहत का अर्थ यह है कि आदमी शनिवार को रोज़ा रखने के लिए विशिष्ट कर ले, क्योंकि यहूदी शनिवार (सप्ताह के दिन) का सम्मान करते हैं।”
चैथाः हारम (निषिद्ध) रोज़ेः
1- ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़्हा के दिन रोज़ा रखना, इसी प्रकार तश्रीक़ के दिनों का रोज़ा रखना जो कि क़ुर्बानी के दिन (10 ज़ुल-हिज्जा) के बाद तीन दिन हैं (अर्थात 11, 12 और 13 ज़ुल-हिज्जा के दिन)।
अबू सईद अल-खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि उन्हों ने कहाः
‘‘नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ईदुल फ़ित्र और क़ुर्बानी के दिन रोज़ा रखने से मना फरमाया है।’’ इसे बुखारी (हदीस संख्याः 1992) और मुस्लिम (हदीस संख्याः 827) ने रिवायत किया है।
अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2418) ने उम्मे हानी के मौला (आजाद किए गए दास) अबू मुर्रह से रिवायत किया है कि वह अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हुमा के साथ उनके पिता अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हु के पास तश्रीफ लाए, तो उन्होंने उन दोनों के सामने खाना रखा और कहा कि : खाओ, तो उन्होंने कहा : मैं रोजे से हूँ। तो अम्र रजियल्लाहु अन्हु ने कहा : खाओ, क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमें इन दिनों का रोजा न रखने का आदेश देते थे, और हमें इन दिनों का रोजा रखने से मना करते थे।
इमाम मालिक कहते हैं कि : ये तश्रीक के दिन थे। अल्लामा अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में इस हदीस को सहीह करार दिया है।
लेकिन उस हाजी के लिए तश्रीक़ के दिनों का रोज़ा रखना जायज़ है जिस के पास क़ुर्बानी का जानवर न हो। आयशा और इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुम से वर्णित है कि उन्हों ने फरमायाः (तश्रीक़ के दिनों में रोज़ा रखने की अनुमति केवल उसी व्यक्ति के लिए है जो हदी (क़ुर्बानी) का जानवर न पाए।) इसे बुखारी (हदीस संख्यः 1998) ने रिवायत किया है।
2- संदेह के दिन का रोज़ा रखना।
इससे अभिप्राय तीस शाबान का दिन है, यदि (उन्तीस शाबान को) आकाश में कोई ऐसी चीज़ है जो चंद्रमा को देखने से रोकती है। लेकिन यदि आकाश साफ़ है, तो इसमें कोई संदेह नहीं है।
बुख़ारी (हदीस संख्या : 1914) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1082) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“لا تَقَدَّمُوا رَمَضَانَ بِصَوْمِ يَوْمٍ وَلا يَوْمَيْنِ إِلا رَجُلٌ كَانَ يَصُومُ صَوْمًا فَلْيَصُمْهُ “
“रमज़ान से एक या दो दिन पहले रोज़ा न रखो, सिवाय उस व्यक्ति के जो – इन दिनों में – कोई रोज़ा रखता था तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे।”
तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 686) और नसाई (हदीस संख्या : 2188) ने अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्होंने फरमायाः
“مَنْ صَامَ الْيَوْمَ الَّذِي يَشُكُّ فِيهِ النَّاسُ فَقَدْ عَصَى أَبَا الْقَاسِمِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ”
”जिस किसी ने उस दिन रोज़ा रखा जिस (के रमज़ान का दिन होने) में लोगों को संदेह होता है, तो उसने अबुल-क़ासिम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अवज्ञा की।”
3- मासिक धर्म और प्रसव (निफ़ास) वाली महिला का रोज़ा रखना।
पांचवां : मुबाह (अनुमत) रोज़ाः
यह वह रोज़ा है जो उपर्युक्त चारों प्रकारों में से किसी एक के तहत नहीं आता है।
यहाँ मुबाह का मतलब यह है किः निर्धारित रूप से इस दिन का रोज़ा रखने का न तो आदेश आया है और न ही उसका रोज़ा रखने से मना किया गया है, जैसेः मंगलवार और बुधवार, हालांकि बुनियादी तौर पर नफ़ली रोज़ा रखना एक मुस्तहब इबादत है।
देखेंः “अल-मौसूअतुल फ़िक़्हिय्या” (28/10-19) और “अश-शर्हुल मुम्ते” (6/457- 483)
रोज़ा के अरकान (स्तंभ)
1. नीयत-
2. रोज़ा को तोड़ने वाली चीज़ों से रूक जाना।
फुक़हा का इस बारे में इत्तिफाक है कि रोज़ा को तोड़ने वाली चीज़ों से फज्र से मग़रिब तक रूक जाना रोज़ा के अरकान में से एक है।
रोज़ा में नीयत के प्रकार:
फर्ज़ की नीयत- 1. फर्ज़ रोज़ा की नीयत रात्रि ही में अर्थात फज्र से पहले कर लेना आवश्यक है, यदि कोई महीना के आरंभ में ही समस्त रमज़ान मास का रोज़ा रखने की नीयत कर लो तो यह भी काफी होगा, नीयत का स्थान ह्रदय है, इसलिए ज़ुबान से बोल कर इसकी नीयत करना बिदअत है।
2. नफ्ल रोज़ा की नीयत- दिन के किसी भी हिस्से में इसकी नीयत कर लेना सही है यदि उस समय तक रोज़ा तोड़ने वाला कोई कार्य नहीं किया हो तो, अलबत्ता नीयत के समय के बाद से उसको अज्र मिलेगा।
रोज़ा के प्रकार-
1. वाजिब (रमज़ान,कफ्फारा और नज़्र-मन्नत-का रोज़ा)
2. नफ्ल।
रमज़ान का रोज़ा वाजिब होने की शर्तें
अल्लाह सर्वशक्तिमान का फरमान है:
شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي أُنْزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدىً لِلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِنَ الْهُدَى وَالْفُرْقَانِ فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ وَمَنْ كَانَ مَرِيضاً أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ يُرِيدُ اللَّهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ [البقرة : 185]
“ रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुर्आन उतारा गया जो लोगों के लिए मार्गदर्शक है और जिसमें मार्गदर्शन की और सत्य तथा असत्य के बीच अन्तर की निशानियाँ हैं। तुम में से जो व्यक्ति इस महीना को पाए उसे रोज़ा रखना चाहिए और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे, अल्लाह तआला तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, तुम्हारे साथ सख्ती नहीं चाहता है।” (सूरतुल बक़राः 185)
1. इस्लाम 2. अक़्ल (चेतना) 3. व्यस्क होना (बालक जब समझदार हो जाए तो उसको रोज़ा रखने के लिए प्रेरित किया जाएगा एवं उसके अभिभावक उसे रोज़ा रखने का आदेश देंगे)। 4. वतन में होना (यात्री पर रोज़ा वाज़िब नहीं है, लेकिन यदि उसे कष्ट न हो तो रोज़ा रखना ही बेहतर है- क्योंकि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसा किया है, तथा इसमें अपनी ज़िम्मेवारी से भी अतिशीघ्र फरिग़ हो जाना है, मुकल्लफ (उत्तरदायी) के लिए यह सहज भी है, तथा रमज़ान महीने में रोज़ा रखने की फज़ीलत भी उसे हासिल हो जाती है)। 5. स्वस्थ होना। 6. हैज़(मासिक धर्म) तथा निफास(प्रसवोत्तर) से पाक होना।
रोज़ा के समय रोग
इसके दो प्रकार हैं
1. ऐसा रोग जिसके ठीक होने की आशा न हो, अत्याधिक बूढ़े व्यक्ति भी इसी श्रेणी में आएगा, उसके लिए रोज़ा रखना वाजिब नहीं है किन्तु प्रत्येक दिन के बदले एक फक़ीर को खाना खिलाएगा,या तो दिन की गिनती अनुसार मिस्कीन को इकट्ठा करके उनको दिन या रात का खाना दे, या प्रत्येक दिन एक मिस्कीन को खाना बाँटे, हरेक मिस्कीन को रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साअ के अनुसार एक चौथाई साअ(यदि अच्छी किस्म का गेहूँ हो तो इसका वज़न लगभग आधा किलो दस ग्राम होता है) दे, और बेहतर है कि इसके संग कुछ ऐसी चीज़ भी दे जिसका इस्तेमाल सालन की तरह होता है, जैसे मांस या तेल इत्यादि।
2. ऐसा रोग जिसके ठीक होने की आशा हो और उस समय उसके लिए रोज़ा रखना कठिन हो, इस में हैज़, निफास तथा बच्चों को दुध पिलाने वाली एवं यात्री शामिल हैं, ये लोग ठीक हो जाने के पश्चात छोड़े हुए दिन के अनुसार रोज़ा रखेंगे और यदि उससे पूर्व ही मौत हो जाए तो उनसे रोज़ा माफ हो जाएगा।
रमज़ान का महीना कैसे साबित होगा ?
यह प्रमाणित होगा:
1. चाँद देख कर 2. या शाअबान मास के तीस दिन पूर्ण होने पर।
रोज़ा को ख़राब व फासिद करने वाली चीजें
(इसमें अज्ञानी तथा भूलवश इसको करने वाले शामिल नहीं हैं)
1. जानबूझकर खाने अथवा पीने वाला, जो भूलवश ऐसा करे उसका रोज़ा सही है।
रोज़ा छोड़ने पर चेतावनी के बारे में वर्णित सहीह हदीसें में से वह हदीस है जिसे इब्ने खुजैमा (हदीस संख्या : 1986) और इब्ने हिब्बान (हदीस संख्या : 7491) ने अबू उमामा बाहिली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : मैं ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह फरमाते हुए सुना कि :
“بينا أنا نائم إذ أتاني رجلان فأخذا بضبعيّ ( الضبع هو العضد ) فأتيا بي جبلا وعِرا ، فقالا : اصعد فقلت : إني لا أطيقه . فقالا : إنا سنسهله لك . فصعدت حتى إذا كنت في سواء الجبل إذا بأصوات شديدة ، قلت : ما هذه الأصوات ؟ قالوا : هذا عواء أهل النار . ثم انطلقا بي فإذا أنا بقوم معلقين بعراقيبهم ، مشققة أشداقهم ، تسيل أشداقهم دما، قلت : من هؤلاء ؟ قال : هؤلاء الذين يفطرون قبل تحلة صومهم”
‘‘इस बीच कि मैं सोया हुआ था मेरे पास दो आदमी आए। वे दोनों मेरा बाज़ू पकड़ कर एक दुर्लभ चढ़ाई वाले पहाड़ पर ले गए। उन दोनों ने कहा : चढ़िए। मैंने कहा : मैं इसकी ताक़त नहीं रखता। उन्हों ने कहा : हम आपके लिए उसे आसान कर देंगे। तो मैं ऊपर चढ़ गया यहाँ तक कि जब मैं पहाड़ की चोटी पर पहुँचा तो वहाँ ज़ोर की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। मैं ने कहा : ये आवाज़ें कैसी हैं? उन्हों ने कहा : यह नरक वालों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ है। फिर वे दोनों मुझे लेकर आगे बढ़े तो मैं ने ऐसे लोगों को देखा जिन्हें उनके कूंचों से लटकाया गया था, उनके जबड़े (बाछें) चीरे हुए थे, जिनसे खून बह रहे थे। मैं ने कहा : ये कौन लोग हैं? उन्हों ने कहा : यह वे लोग हैं जो रोज़ा खोलने के समय से पहले ही रोज़ा तोड़ देते थे।’’ इसे अल्बानी ने सहीह मवारिदुज़ ज़मआन (हदीस संख्या : 1509) में सही कहा है।
अल्बानी रहिमहुल्लाह ने इसपर टिप्पणी करते हुए फरमाया : ’’मैं कहता हूँ : यह उस व्यक्ति की सज़ा है जिसने रोज़ा रखा फिर जानबूझकर रोज़ा इफ्तार का समय होने से पहले रोज़ा तोड़ दिया। तो फिर उस व्यक्ति का क्या हाल होगा जो सिरे से रोज़ा ही नहीं रखता?! हम अल्लाह तआला से दुनिया व आखिरत में सुरक्षा व शांति का प्रश्नकरते हैं।’’
2. संभोग करना, यदि ऐसा रमज़ान महीने के दिन में किया हो और रोज़ा रखना उस पर वाजिब था तो उस पर मुग़ल्लज़ा कफ्फारा वाजिब है, जो इस प्रकार है- एक गुलाम आज़ाद करना, यदि इसकी शक्ति न हो तो दो महीने के लगातार रोज़े रखना,यदि इसमें भी असमर्थ हो तो साठ फक़ीर को खाना खिलाना।
3. अंतरंगता, चुम्बन अथवा आलिंगन इत्यादि के द्वारा वीर्य स्खलन।
4. ऐसी वस्तु का उपयोग जो खाने पीने के समान हो, जैसे स्वास्थ्यवर्धक सूई लगवाना, किन्तु सूई यदि स्वास्थ्यवर्धक न हो तो रोज़ा नहीं टूटेगा।
5. हिज़ामा के द्वारा रक्त निकलवाना, किन्तु यदि थोड़ा सा ख़ून जाँच इत्यादि के लिए निकलवाया जाए तो रोज़ा नहीं टूटेगा
6. जानबूझकर उल्टी करना
7. हैज़ अथवा निफास का ख़ून निकलना
रोज़ा में मुस्तहब (प्रिय, उचित) कार्य-
1. सेहरी खाना
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“تسحروا فإن في السحور بركة”
‘‘सेहरी करो क्योंकि सेहरी में बरकत है।’’ इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1923) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1095) ने रिवायत किया है।
2. सेहरी खाने में देर करना ।
सेहरी में विलंब करना सुन्नत है, क्योंकि बुखारी ने अनस से, उन्हों ने ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हुम से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा :
“تسحرنا مع النبي – صلى الله عليه وسلم – ثم قام إلى الصلاة قلت: كم كان بين الأذان والسحور قال قدر خمسين آية”
‘‘हम ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सेहरी की फिर आप नमाज़ के लिए खड़े हुए, मैं ने कहा: अज़ान और सेहरी के बीच कितना अंतर था ॽ उन्हों ने कहा : पचास आयत पढ़ने के बराबर।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1921) ने रिवायत किया है।
3. इफ्तार में जल्दी करना।
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :
“لا يزال الناس بخير ما عجلوا الفطر”
‘‘लोग निरंतर भलाई में रहेंगे जबतक इफ्तार करने में जल्दी करते रहेंगे।’’ इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1957) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1098) ने रिवायत किया है,
4. रूतब (डम्हा खजूर) से इफ़्तार करना, यदि यह मयस्सर न हो तो (पका) खजूर से, यदि यह भी न हो पानी के कुछ घोंट से और यदि कुछ भी न हो तो दिल में इफ़्तार की नीयत कर ले।
मसनून तरीक़ा यह है कि रूतब (पके हुए ताज़ा खजूर) पर रोज़ा इफ्तार किया जाए, यदि वह न मिले तो (सूखे) खजूर पर यदि वह भी न मिले तो पानी पर, क्योंकि अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि उन्हों ने कहा :
“كان رسول الله – صلى الله عليه وسلم – يفطر على رطبات قبل أن يصلي، فإن لم يكن فعلى تمرات، فإن لم تكن حسا حسوات من ماء”
‘‘अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नमाज़ पढ़ने से पहले कुछ रूतब पर इफ्तार करते थे, यदि वह न होती थीं तो चंद खजूरों पर, यदि वह भी उपलब्ध ने होती तो चंद घूँट पानी पी लेते थे।’’
इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2356), तिर्मिज़ी (हदीस संख्या :696) ने रिवायत किया है, और अल्बानी ने इर्वाउल-गलील (4/45) में इसे हसन कहा है।
5. इफ़्तार के समय तथा रोज़े की हालत में दुआ करना।
रोज़ा इफ्तार करते समय वर्णित दुआ पढ़ना सुन्नत है, और जो दुआ वर्णित है वह बिस्मिल्लाह कहना है, और शुद्ध मत के अनुसार वह वाजिब है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसका आदेश दिया है, तथा ‘‘अल्लाहुम्मा लका सुम्तो व अला रिज़क़िका अफ्तरतो, अल्लाहुम्मा तक़ब्बल मिन्नी इन्नका अंतस्समीउल अलीम’’ वर्णित है,
लेकिन वह ज़ईफ (कमज़ोर) है जैसाकि इब्नुल क़ैयिम ने ज़ादुल मआद (2/51) में कहा है, तथा ‘‘ज़हा-बज़्ज़मा-ओ वब्ब-तल्लतिल उरूक़ो व सबा-तल अज्रो इन-शा-अल्लाह’’ वर्णित है, इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2357)और बैहक़ी (4/239) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने इर्वाउल गलील (4/39) में हसन कहा है।
रोज़ेदार के लिए सुन्नत यह है कि जब वह इफ़्तार करे तो यह दुआ पढ़े :
” ذهب الظمأ ، وابتلت العروق ، وثبت الأجر إن شاء الله “
”ज़हा-बज़्ज़मा-ओ वब्ब-तल्लतिल उरूक़ो व सबा-तल अज्रो इन-शा-अल्लाह” (अर्थात् प्यास चली गई, रगें तर हो गईं और अज्र व सवाब पक्का होगया यदि अल्लाह ने चाहा)
रोज़ेदार के लिए अधिक से अधिक दुआएँ करना मुस्तहब व पसंदीदा है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहुअलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“ثَلَاثَةٌ لَا تُرَدُّ دَعْوَتُهُمْ : الْإِمَامُ الْعَادِلُ ، وَالصَّائِمُ حَتَّى يُفْطِرَ، وَدَعْوَةُ الْمَظْلُومِ”
“तीन लोगों की दुआयेंअस्वीकार नहीं की जाती हैं : न्याय प्रिय इमाम, रोज़ेदार यहाँ तक कि वह रोज़ा खोल दे, और मज़लूम (अत्याचार से पीड़ित व्यक्ति) की दुआ।” इसे अहमद (हदीस संख्या : 8043) ने रिवायत किया है और मुस्नद इमाम अहमद के अन्वेषकों ने उसकी विभन्न सनदों और शवाहिद के आधार पर इसे सहीह कहा है।
1- अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “तीन दुआयें अस्वीकार नहीं की जाती हैं : पिता की दुआ, रोज़ेदार की दुआ और मुसाफिर की दुआ।” इसे बैहक़ी (3/345) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सिलसिला सहीहा (हदीस संख्या : 1797) में सहीह कहा है।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं:
”रोज़ेदार के लिए मुस्तहब है कि वह अपने रोज़े की हालत में दुनिया व आखिरत के महत्वपूर्ण और आवश्यक चीज़ों की अपने लिए, अपने चहेतों के लिए और मुसलमानों के लिए दुआ करे।” ”अल-मजमूअ” (6/375) से अंत हुआ।
6. अधिकाधिक सदक़ा व ख़ैरात (दान-पुण्य) करना।
बुखारी (हदीस संख्या : 6) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2308) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा :
“كَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَجْوَدَ النَّاسِ ، وَكَانَ أَجْوَدُ مَا يَكُونُ فِي رَمَضَانَ حِينَ يَلْقَاهُ جِبْرِيلُ ، وَكَانَ يَلْقَاهُ فِي كُلِّ لَيْلَةٍ مِنْ رَمَضَانَ فَيُدَارِسُهُ القُرْآنَ ، فَلَرَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَجْوَدُ بِالخَيْرِ مِنَ الرِّيحِ المُرْسَلَةِ “
”नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों में सबसे अधिक दानशील थे। और आप सबसे अधिक दानशील रमज़ान में होते थे जिस समय आप जिब्रील अलैहिस्सलाम से मिलते थे। और आप जिब्रील अलैहिस्सलाम से रमज़ान की हर रात में मिलते थे तो वह आपको क़ुरआन पढ़ाते थे। तो उस समय आप तेज़ हवा से भी अधिक भलाई के कामों में दानशीलता का प्रदर्शन करने वाले होते थे।”
7. रात्री की नमाज़ (तरावीह) पढ़ने का प्रयास करना।
8. क़ुरान की तिलावत(पाठ) करना।
9. उमरा करना
10. यदि कोई उसको गाली दे तो पलट कर गाली देने के स्थान पर कहना कि “मैं रोज़ेदार हूँ”।
11. लैलतुल क़द्र(क़द्र-मान-वाली रात्री) को खोजना।
12. अन्तिम दहाई(दस दिनों) में ऐतकाफ करना।
रोज़ा में मकरूह कार्य
1. कुल्ली करने तथा नाक में पानी डालने में मुबालग़ा (अतिशयोक्ति) करना
2. बिना किसी आवश्यकता के खाना चखना।
रोज़ा में जायज़ कार्य
रोज़ेदार के लिए थूक निगलना, आवश्यकता के समय खाना चखना, रोज़ेदार के लिए थूक निगलना, आवश्यकता के समय खाना चखना, ग़ुस्ल करना, मिस्वाक करना, इत्र लगाना तथा ठंडक हासिल करना जायज़ है।
रोज़ा में हराम (निषिद्ध) कार्य-
1. कफ निगलना रोज़ेदार के लिए हराम है, लेकिन इससे रोज़ा नहीं टूटेगा।
2. जिसका स्वयं पर नियंत्रण न हो उसके लिए पत्नि का चुम्बन लेना।
3. ज़ूर बोलना (यह प्रत्येक ह़राम कार्य करने को कहते हैं)
4. जिहालत भरे कार्य करना (अर्थात बेवक़ूफी करना, तथा संयम से काम न लेना)।
5. मुसलसल रोज़े रखना (यानि दो दिन तक लगातार बिना इफ़्तार किए रोज़ा रखना)।
नफ्ल रोज़ा-
1. जिसने रमज़ान के रोज़े रखे हों उसका शव्वाल के छ: रोज़े रखना, और बेहतर यह है कि दूसरे दिन से लगातार छ: रोज़ा रख ले।
2. हाजियों को छोड़कर दूसरे लोगों का अरफा के दिन रोज़ा रखना।
3. आशूरा (दस मुहर्रम) को नौंवी और ग्यारहवीं मिलाकर रोज़ा रखना।
4. सोमवार तथा जुमेरात को रोज़ा रखना, सोमवार की ताकीद ज़्यादा है।
5. प्रत्येक महीना में तीन दिन रोज़ा रखना, और बेहतर यह है कि प्रत्येक हिजरी महीना के 13,14, तथा 15 तारीख़ (अय्याम-ए-बीज़) को रोज़ा रखे।
6. एक दिन बीच करके रोज़ा रखना।
7. अल्लाह के महिना मुहर्रम में (अधिकाधिक) रोज़ा रखना।
8. 9 ज़िल्हिज्जा को रोज़ा रखना।
9. शाअबान में रोज़ा रखना किन्तु पूरे महीना का न रखे।
मकरूह रोज़े
जुमा(शुक्रवार), सनीचर(शनिवार) और इतवार के दिन विशेष करके रोज़ा रखना, लेकिन यदि किसी कारणवश इस दिन रोज़ा रखे जैसे इस दिन अरफा आ जाए, तो कोई ह़र्ज नहीं।
ह़राम रोज़े-
1. विशेषत: रजब के रोज़े रखना
2. शक के दिन रोज़ा रखना, किन्तु यदि किसी की आदत हो कि व उस दिन रोज़ा रखता हो तो कोई बात नहीं।
3. ईद व बकरीद के दिन रोज़ा रखना।
4. तशरीक़ के दिनों में रोज़ा रखना, सिवाय उस ह़ाजी के जिसके पास कुर्बानी का पशु (जानवर) न हो।
5. सालोंसाल तक लगातार रोज़ा रखते जाना।
और अल्लाह तआला ही बेहतर इल्म रखने वाला है।
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