शिर्क क्या है ?

Question

शिर्क

सब तरह की तारीफें सिर्फ अल्लाह तआला के लिए ही हैं।

अरबी भाषा में शिर्क का अर्थ : साझी बनाना है यानि किसी को दूसरे का साझीदार और भागीदार बनाना । इस्लामी शरीअत की शब्दावली में शिर्क का मतलब : अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल के साथ उसकी रुबूबियत (स्वामित्व) या इबादत या नामों और गुणों में कोई साझीदार या उसके जैसा बनाना।आम मुसलमान यह समझता है कि शिर्क का मतलब अल्लाह के सिवा किसी दूसरे मज़हब के माबूद की इबादत होती है लेकिन सिर्फ यही शिर्क नहीं है बल्कि अल्लाह को मानते हुए किसी दूसरे को अल्लाह की सिफात में साझीदार बनाना भी शिर्क है जैसे मक्का के मुशरिक अल्लाह को तो मानते थे लेकिन दूसरे को अल्लाह का शरीक बनाते थे।मुशरिकीन-ए-मक्का जिन्हे अपनी मुशकिलों को हल करने वाला और जरूरत को पूरा करने वाला समझते थे,उन के अख्तियारात को ज़ाती नहीं बल्कि अल्लाह तआला की तरफ से अता किया हुआ समझते थे, हज्ज के दौरान मुशरिकीन जो तल्बिया पढ़ते थे उस से मुशरिकीन के उस अक़ीदे पर रौशनी पड़ती है जिस के शब्द यह हैं
“लब्बैक ला शरीक लक लब्बैक इल्ला शरीकन् हुव लक तम्लिकुहु व मा मलक” यानि

ऐ अल्लाह मैं हाजिर हुँ, तेरा कोई शरीक नहीं मगर एक तेरा शरीक है जिस का तू ही मालिक है और वह किसी चीज़ का मालिक नहीं।
इस तल्बिये से यह बाते साफ हैं
1. मुशरिक अपने ठहराए हुए माबूदों का मालिक और ख़ालिक भी रब्बे अकबर को ही समझते थे।
2. मुशरिक अपने ठहराए हुए माबूदों के अख्तियारात को जाती नहीं समझते थे बल्कि उसे भी अल्लाह तआला की तरफ से अता किया हुआ मानते थे । याद रहे कि मुशरिकीन की तल्बिया से जाहिर होने वाले इस अकीदे को रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने शिर्क क़रार दिया है ।

एक आदमी ने बातचीत के दौरान रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा
“जो अल्लाह चाहे और जो आप(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) चाहे”, तो रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया “क्या तुमने मुझे अल्लाह तआला का शरीक बना लिया है? [मुसनद अहमद]

एक शख़्स ने रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से बारिश की दुआ करवानी चाही और साथ ही कहा कि

हम अल्लाह तआला को आप के यहाँ और आप को अल्लाह तआला के यहाँ सिफारिशी बनाते हैं।”
तो आप(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चेहरे का रंग बदलने लगा और फरमाया “अफसोस तुझे मालूम नहीं अल्लाह तआला की शान कितनी बुलन्द है,उसे किसी के हज़ूर सिफारिशी नहीं बनाया जा सकता [अबू दाऊद]

शिर्क कितना बड़ा गुनाह है इसका अन्दाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हजरत मुआज इब्न जबल रज़ियल्लाहु अन्हु को दस नसीहतें फरमायी उनमें सबसे पहला यह था कि
“अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करना चाहे कत्ल करे दिये जाओ या जला दिए जाओ।” [मुसनद अहमद]
अल्लाह तआला ने शिर्क को जुल्म कहा है। सवाल यह है कि क्या कलिमा पढ़ने वाला भी मुशरिक हो सकता है तो इसका जवाब खुद अल्लाह तआला ने कुरान में दिया है।
अल्लाह तआला फरमाते है:
“लोगों में से ज्यादातर ऐसे हैं जो अल्लाह तआला पर ईमान लाने के बावजूद मुशरिक है।” [सूरह युसुफ, आयत-102]
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

من مات وهو يدعو من دون الله ندا دخل النار

“जो आदमी इस अवस्था में मरा कि वह अल्लाह को छोड़ कर किसी समकक्ष (प्रतिद्वंद्वी) को पुकारता था, वह जहन्नम में जायेगा।”
[सहीह बुखारी हदीस संख्या : 4497, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 92]

अल्लाह तआला का फरमान है :
إِنَّ اللَّهَ لا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ وَمَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدِ افْتَرَى إِثْماً عَظِيماً

“अल्लाह तआला अपने साथ शिर्क किए जाने को माफ नहीं करेगा, और इस के अतिरिक्त जिसे चाहेगा क्षमा कर दे गा, और जो अल्लाह के साथ शिर्क करे उस ने अल्लाह पर भारी आरोप गढ़ा।” [सूरतुन-निसा: आयता-48]
अल्लाह तआला ने फरमाया :

إِنَّهُ مَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللَّهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَأْوَاهُ النَّارُ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنْصَارٍ

“जो अल्लाह के साथ शिर्क करेगा अल्लाह ने उस पर जन्नत हराम कर दी है और उस का ठिकाना नरक है और ज़ालिमों (अन्यायियों) का कोई सहयोगी न होगा।” [सूरतुल माईदा : आयत-72]

शिर्क से मुराद अल्लाह तआला की ज़ात,सिफात,इबादात,हक़ुक़ व इख़्तियारात में किसी ग़ैर को अल्लाह तआला का शरीक(हिस्सेदार) या बराबरी वाला करार देना या समझना या किसी को अल्लाह के साथ शुमार करना या शामिल करना या ग़ैरूल्लाह की ताज़ीम व इज़्ज़त करे जैसे अल्लाह की ताज़ीम व इज़्ज़त की जाती है। या किसी ग़ैरूल्लाह की मुहब्बत में गुलू(हद से बढ़कर तारीफ व ताज़ीम) करना,ग़ैरूल्लाह की इबादत इसलिए करना की अल्लाह की नज़दीकी हासिल हो, ये सब शिर्क की तारीफ में आता है, क्योंकि अल्लाह तबारक व तआला अपनी ज़ात,सिफात,इबादात,हक़ूक़ व इख़तियारात, रबूबियत और उलूहियत में अकेला और तन्हा है।

शिर्क की दो किस्में हैं। 1. शिर्क-ए-अकबर , 2. शिर्क असग़र

शिर्क-ए-अकबर किसी को अल्लाह के बराबर समझे या उसके मुकाबले में जाने सिर्फ यही नहीं है बल्कि शिर्क-ए-अकबर ये होता है कि जो चीज़ें अल्लाह ने अपने लिए अपनी ज़ात-ए-आला के लिए ख़ास की हैं, इन्सान किसी और हस्ती को
भी ये सारे के सारे इख्तियारात व इबादात के क़ाबिल समझे, जैसे दुआ करते वक़्त अल्लाह तआला के साथ किसी को शरीक ठहराना, या ग़ैरूल्लाह से दुआ करना, ग़ैरूल्लाह या मुर्दों या ग़ायब ज़िन्दों को पूकारना,ग़ैरूल्लाह के आगे सज्दा करना, ज़ब्ह करना(क़ुर्बानी करना), नज़रो-नियाज़ करना, मिसाल के तौर पर आज कल लोग पीरों(मुर्शीदों), पैगम्बरों को ,इमामों को, शहीदों को मुशकिल के वक़्त पुकारते हैं,उनसे मुरादें मांगते हैं, उनसे मन्नतें मांगते हैं और हाज़त पूरी होने के लिए उनकी नज़रो-नियाज़ करते हैं। और बला को टालने के लिए या मुसीबत दूर करने के लिए उनसे मदद मांगते हैं। या ये कहते हैं कि ये अल्लाह के प्यारे बन्दे थे अल्लाह इनकी सुनता है या उनके वास्ते से मांगने पर अल्लाह सुनता है ये सब शिर्क-ए-अकबर है या यूँ कहते हैं अल्लाह तो सब से बड़ा है लेकिन ये मरे हुए लोग अल्लाह के नायब हैं, अगर किसी का नाम मिसाल के तौर पर अब्दुल नबी (यानि नबी का बन्दा) , अब्दुल रसूल होते ये भी शिर्क है, उसे चाहिए कि अपना नाम फौरन् बदल डाले और दूसरा अच्छा नाम रख़ ले।
1. अल्लाह तआला की ज़ात में शिर्क यह है कि किसी को अल्लाह का बेटा कहना या बेटियाँ कहना क्योंकि अल्लाह तआला फऱमाता है “उस जैसी कोई चीज़ नहीं” [सूरह शूरा, आयत-11], किसी को अल्लाह का साया समझना,इन्सान को अल्लाह का नूर समझना ।
2. अल्लाह तआला की सिफात में शिर्क यह है कि यह समझना या अक़ीदा रखना की फलां बुज़ुर्ग वली या मरा हुआ शख्स सब जानता या ग़ैब जानता है, या फलां फाल खोलने वाला गै़ब बता सकता है, किस्मत बता सकता है, या क़यामत फलां वाकिया के फौरन् बाद होगी, जिस किसी ने झूठे माबूदों की या उन पर यक़ीन रखा व ताग़ुत है, हमारे फौत शुदा बुज़ुर्ग सब सुनते हैं, सब देख रहे हैं या बा ख़बर हैं, या रसूल या कोई बुज़ुर्ग हमारी महफिल में हाज़िर होते हैं, किसी मरे हुए शख़्स को हाज़िर व नाज़िर जानना ये सब शिर्क-ए-अकबर है।
3. इबादात में शिर्क- सब से पहले ये समझ लिया जाए कि इबादात क्या हैं (दुआ,नमाज़,सज्दा,रोज़ा,हज़, क़ुरबानी नज़र व नियाज़ वगै़रह), इबादात में शिर्क ये है कि ग़ैरूल्लाह से दुआ करना, (मरे हुए लोगों से दुआ करना,उन से फरियाद करना) क़ुर्बानी,नज़र व नियाज़ करना, ग़ैरूल्लाह के लिए ज़बह करना, ग़ैरूल्लाह के आगे सज़्दे करना, किसी क़ब्र का तवाफ करना जैसे खाना-ए-काबा का तवाफ किया जाता है।
जबकि अल्लाह तआला फरमाता है, “ऐ आदम की औलाद, क्या मैं ने तुम से क़ौल व क़रार नहीं लिया था कि तुम शैतान की इबादत न करना” [सूरह यासिन, आयत-60]
4. हक़ुक व अख़्तियारात में शिर्क- सिर्फ अल्लाह तआला ही को सारे का सारा इख़्तियार है, अल्लाह तआला क़ादिर है, किसी को नफअ् या नुक़सान दे, मुश्किल और मुसीबत दूर करे, बीमारी दूर करे,शिफा दे, अल्लाह के उन मख़सूस इख़्तियारात में किसी ग़ैरूल्लाह को भी अगर मान लिया जाए कि फलां हस्ती या फौत शुदा बुज़ूर्ग को भी कायनात में ये सब इख्तियारात हासिल है, फलां को भी इख़्तियार है कि हमारी जरूरत को पूरी कर सकता है, हमारी बिगड़ी बना सकता है, हमारी तस्तगिरी कर सकता है, हमारा ग़ौस है, हमारा मुश्किल कुशा है, ये सब शिर्क-ए-अकबर है।
5. अल्लाह तआला की रूबूबियत में शिर्क ये है कि अल्लाह के अलावा किसी और को भी ख़ालिक, मालिक,राज़िक़ समझना, मिसाल के तौर पर यह अक़ीदा रखना कि ये बुज़ूर्ग भी औलाद दे सकता है, ये क़ब्र वाला रोज़ी रोटी दे सकता है और कुछ कर सकता है, इस बुज़ूर्ग से डरो, उन साहिब-ए-क़ब्र से मुह्ब्बत रखो, ये अल्लाह के आगे हमारी सिफारिश करेंगे,ये हमें अल्लाह के क़रीब कर देंगे वरना हमारी रसायी या पहूँच अल्लाह तक कैसे हो सकती है, किसी मरे हुए शख़्स को अल्लाह का वसीला समझना।
6. अल्लाह तआला की उलूहियत मे शिर्क ये है कि अल्लाह के अलावा किसी और को भी इलाह(इबादत के लायक) मानना(इबादत के लायक तो सिर्फ एक अल्लाह है)। अल्लाह तआला फरमाता है:

“अल्लाह के साथ किसी और को माबूद न ठहरा” [सूरह अल्-इसरा,आयात-22]
शिर्क-ए-अकबर की दलील क़ुरआन और हदीस की रौशनी में:
1. अल्लाह तआला की ज़ात में शिर्क
हदीस-ए-कुदसी में है कि अल्लाह तआला फरमाता है: “इ्न्सान मुझे गाली देता है यानि मेरे लिए औलाद साबित करता है, हालांकि मैं एक हूँ ,बेनियाज़ हूँ, मैं ने किसी को न जना है न मैं किसी से पैदा हूआ हूँ और न कोई मेरा हमसर है।” [सहीह बुखारी]
2. अल्लाह तआला की सिफात में शिर्क
अल्लाह तआला फरमाता है: “और जिन्दे और मुर्दे बराबर नहीं हो सकते” [सूरह फातिर, आयत-22]
“अल्लाह तआला जिस को चाहता है सूना देता है, और आप(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन लोगों को नही सुना सकते जो क़ब्रो में हैं ।” [सूरह फातिर, आयत-22]
“और तुम जिन लोगों को अल्लाह को छोड़ कर इबादत करते हो,वह तुम्हारी कुछ मदद नहीं कर सकते और न वह अपनी मदद कर सकते हैं।” [सूरह आराफ, आयत-197]
पाँच चीज़ों का इल्म सिर्फ अल्लाह के पास है:
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:
“ग़ैब की पाँच कुन्जियाँ हैं जिन्हें अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा, किसी को नहीं मालूम कि माँ के पेट में क्या है,किसी को यह मालूम नहीं कि उसे मौत कब आएगी, किसी को नहीं मालूम कि बारिश कब होगी, किसी को नहीं ख़बर कि क़ियामत कब क़ायम होगी मगर अल्लाह के[सहीह बुखारी, 6/219]”

अल्लाह तआला फरमाता है: “(ऐ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आप कह दीजिए कि न तो मैं तुम से ये कहता हूँ कि मेरे पास अल्लाह के ख़जाने हैं और न मैं ग़ैब जानता हूँ और न मैं तुम से ये कहता हूँ कि मैं फरिश्ता हूँ।” [सूरह अन्आम,आयत-50]
अल्लाह तआला फरमाता है: (ऐ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कह दीजिए कि आसमान वालों में से ज़मीन वालों में से सिवाए अल्लाह के कोई गै़ब नहीं जानता, उन्हें तो ये भी नहीं मालूम कि कब उठा खड़े किए जाएँगें।” [सूरह नमल,आयत-65]

अल्लाह तआला की रुबूबियत, उसकी उलूहियत और उस के नामों और गुणों में से जो उस का एक मात्र हक़ है उसे अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए फेर देना शिर्क अकबर है। यह शिर्क कभी ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) होता है : जैसे कि बुतों और पत्थरों के पूजकों, तथा क़ब्रों, मरे हुए और अनुपस्थित लोगों की इबादत करने वालों का शिर्क।

शिर्क-ए-अकबर:
1. अल्लाह तआला की ज़ात में शिर्क:
और कभी कभार यह शिर्क छुपा हुआ होता है : जैसे कि अल्लाह के अलावा दूसरे माबूदों पर भरोसा करने वालों का शिर्क,या मुनाफिक़ों (पाखण्डियों) का शिर्क और कुफ्र ; क्योंकि इन लोगों का शिर्क भले ही बड़ा शिर्क है जो धर्म से निष्कासित कर देता है और उस के करने वाले को हमेशा के लिए जहन्नम का भागी बना देता है, लेकिन यह एक छुपा हुआ और नाशिर्क है, क्योंकि वे लोग इस्लाम को मानने का दिखावा करते हैं और कुफ्र और शिर्क को छिपाते हैं, अत: वे प्रोक्ष में मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) हैं न कि प्रत्यक्ष रूप से।

इसी तरह यह शिर्क कभी कभार अक़ीदों (मान्यताओं) में होता है:

जैसे कि यह अक़ीदा (विश्वास) रखना कि अल्लाह के साथ कोई और भी है जो पैदा करता है, या जिन्दगीऔर मौत देता है (मारता और जिलाता है), या इस दुनिया में नियंत्रण करता है।

मुहब्ब्त और सम्मान में अल्लाह के साथ शिर्क करना (किसी को साझी ठहराना), इस प्रकार कि आदमी किसी मख्लूक़ से उसी तरह से मुहब्बत करे जिस तरह कि अल्लाह से मुहब्बत करता है, तो यह ऐसा शिर्क है जिसे अल्लाह तआला माफ नहीं करेगा, यही वह शिर्क है जिस के बारे में अल्लाह तआला का फरमान है :

ومن الناس من يتخذ من دون الله أندادا يحبونهم كحب الله

“और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह के साझीदार दूसरों को ठहरा कर उन से ऐसी मुहब्बत रखते हैं जैसी महुब्बत अल्लाह से होनी चाहिए।” [सूरतुल बक़रा :  आयत-165]

यह अक़ीदा रखना कि अल्लाह के साथ कोई और भी है जो छुपी हुई बातों का इल्म (इल्मे-ग़ैब) रखता है, यह चीज़ कुछ गमुराह फिरकों जैसे कि राफिज़ा, कट्टरपंथी सूफिया और सामान्य रूप से बातिनिय्या के यहाँ बाहुल्यता से पाई जाती है। राफिज़ा अपने इमामों के बारे में यह अक़ीदा रखते हैं कि वे ग़ैब का इल्म रखते हैं, इसी तरह बातिनिय्या और सूफिया अपने औलिया (सदाचारियों) के बारे में इसी तरह का अक़ीदा रखते हैं। और जैसे यह अक़ीदा रखना कि कोई ऐसा भी है जो उसी तरह रहम करता है जैसा रहम करने के लायक सिर्फ अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ही है, चुनाँचि वह मानते हैं कि वह माबूद या वली, अल्लाह तआला की तरह रहम करता है और वह इस तरह कि वह गुनाहों को माफ करता है, अपने मानने वालों को माफ कर देता है और बुराईयों को माफ कर देता है।

तथा कभी-कभार यह शिर्क शब्दों (कथन) में होता है:

जैसे कि कोई शख़्स ऐसी चीज़ में जिस पर केवल अल्लाह तआला ही ताकत रखता है, अल्लाह के अलावा किसी दूसरे से फरियाद करे, या मदद मांगे, या पनाह ढूंढ़े ; चाहे वह दूसरा रसूल हो, या औलिया या फरिश्ता, या जिन्न, या इसके अलावा कोई दूसरी मख्लूक़ हो, यह शिर्क अकबर में से है जो दीन से बाहर कर देता है।

और जैसे कि वह आदमी जो दीन का मज़ाक उड़ाये, या अल्लाह तआला को उसकी मख्लूक़ के समान और बराबर ठहराये, या अल्लाह के साथ कोई खालिक़ (पैदा करने वाला), या रोज़ी देने वाला, या संसार का नियंत्रण करने वाला साबित करे। ये सब के सब शिर्क अकबर और ऐसा बड़ा गुनाह है जिसे माफ नहीं किया जायेगा।

दूसरा : शिर्क असग़र(छोटा शिर्क) :

शिर्क-ए-अकबर की तरह शिर्क-ए-असग़र भी कबीरा गुनाह है, शिर्क-ए-असग़र ये है :
1. रियाकारी(दिखावा), 2. ग़ैरूल्लाह की कसम खाना (शिर्क फिल्-हलफ), 3. या यूँ कहना कि जो अल्लाह चाहे और आप चाहें, 4. बदशगुनी करना, 5. यहाँ तक कि ताविज़ लटकाने को, बहुत से उलमा ने शिर्क असग़र को छोटा शिर्क की फहरिस्त में रखा है, और उनकी दलील ये है :
और अगर तुझ को अल्लाह तआला कोई तकलीफ पहुँचाए तो उस का दूर करने वाला सिवा अल्लाह तआला के और कोई नहीं।” [सूरह अन्आम, आयत-17]
और रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया: जिस ने ताविज़ लटकाई उसने शिर्क किया।” [मुसनद अहमद, सहीह]
2. अल्लाह तआला ने रियकारी को निफाक़ की निशानी क़रार दिया है : “और वह लोग अपना माल लोगों को दिखाने के लिए खर्च करते हैं और अल्लाह तआला पर और कियामत के दिन पर ईमान नहीं रखते और जिस का हम नशीन और साथी शैतान हो, वह बदतरीन साथी है।” [सूरह-निसा, आयत-38]
उन नमाज़ियों के लिए अफसोस(और वैल नामी जहन्नम की जगह) है, जो अपनी नमाज़ से ग़ाफिल हैं, जो रियाकारी करते हैं, और बरतने की चीज़ रोकते हैं।” [सूरह-अल्-माऊन, आयत-4-7]

हर वह चीज़ जो शिर्क अकबर का कारण (अर्थात् उसकी ओर ले जाने वाली) हो, या जिस के बारे में क़ुर्आन व हदीस के नुसूस (ग्रंथों) में यह आता है कि वह शिर्क है किन्तु वह शिर्क अकबर की सीमा तक नहीं पहुँचता है।

और यह आम तौर पर दो तरह से होता है:

पहला : कुछ ऐसे कारणों से संबंध जोड़ना जिन की अल्लाह तआला ने अनुमति नहीं दी है, जैसे कि हथेली और माला (मनका) और इसी जैसी चीज़ें इस उद्देश्य से लटकाना कि ये सुरक्षा का कारण हैं, या ये बुरी नज़र को दूर करती हैं जबकि अल्लाह तआला ने इन्हें शरई तौर पर और न ही प्राकृतिक तौर पर इनका कारण नहीं बनाया है।

दूसरा : कुछ चीज़ों का इस प्रकार सम्मान करना जो उसे रुबूबियत (स्वामित्व) के स्थान तक न पहुँचाये, जैसे कि ग़ैरूल्लाह की क़सम खाना, और इसी तरह यह कहना कि : अगर अल्लाह और फलाँ न होता (तो ऐसा हो जाता) इत्यादि।

विद्वानों ने कुछ ऐसे नियम और क़ायदे निर्धारित किये हैं जिन के द्वारा शरई नुसूस में वर्णित होते समय शिर्क अक्बर और शिर्क असग़र के बीच भिन्नता और अंतर स्पष्ट हो जाता है, उन नियमों में से कुछ निम्नलिखित हैं:

1- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम स्पष्ट रूप से यह वर्णन कर दें कि यह काम लघु शिर्क (छोटा शिर्क) है : जैसा कि मुसनद अहमद (हदीस संख्या :27742) में महमूद बिन लबीद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्हों ने कहा कि : अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

إِنَّ أَخْوَفَ مَا أَخَافُ عَلَيْكُمْ الشِّرْكُ الأَصْغَرُ . قَالُوا يَا رَسُولَ اللَّهِ : وَمَا الشِّرْكُ الأَصْغَرُ؟ قَالَ :الرِّيَاء . إِنَّ اللَّهَ تَبَارَكَ وَتَعَالَى يَقُولُ يَوْمَ تُجَازَى الْعِبَادُ بِأَعْمَالِهِمْ اذْهَبُوا إِلَى الَّذِينَ كُنْتُمْ تُرَاءُونَ بِأَعْمَالِكُمْ فِي الدُّنْيَا فَانْظُرُوا هَلْ تَجِدُونَ عِنْدَهُمْ جَزَاءً 

“मुझे तुम्हारे ऊपर सब से अधिक छोटे शिर्क का डर है।” लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के पैग़ंबर! छोटा शिर्क क्या है ?
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उत्तर दिया : “रियाकारी (किसी को दिखाने के लिये कोई काम करना)।अल्लाह तआला जिस दिन बन्दों को उन के कामों का बदला देगा उस दिन फरमायेगा : तुम लोग उन लोगों के पास जाओ जिन्हें दिखाने के लिए तुम दुनिया में अपने कार्य करते थे, फिर देखो कि क्या तुम उन के पास बदला पाते हो। (अल्बानी ने अस्सिलसिला अस्सहीहा में हदीस संख्या: 951 के अंतरगत इसे सहीह कहा है)

2- शिर्क का शब्द क़ुरआन व हदीस के नुसूस (ग्रंथों) में “नकिरा” (जाति वाचक संज्ञा) के रूप में आया हो -अर्थात् वह बिना अलिफ लाम के हो- तो आम तौर पर इस से अभिप्राय शिर्क असग़र (छोटा शिर्क) होता है, और इसके ढेर सारे उदाहरण हैं, जैसे कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है :

” إن الرقى والتمائم والتِّوَلَة شرك “

“मंत्र (झाड़-फूँक), ताबीज़-गण्डा और प्रेम-मंत्र शिर्क है।” (अबू दाऊद हदीस संख्या : 3883, अल्बानी ने अस्सिलसिला अस्सहीहा (331) में इसे सहीह कहा है).

यहाँ पर शिर्क से मतलब छोटा शिर्क है बड़ा शिर्क नहीं।

ताबीज़-गण्डा से अभिप्राय ऐसी चीज़ है जो बच्चों के गले में लटकायी जाती थी जैसे सीपी, मनका, माला इत्यादि जिस के बारे में यह गुमान किया जाता था कि वह उसे बुरी नज़र से सुरक्षित रखती है।

तथा प्रेम-मंत्र एक ऐसी चीज़ है जिसे इस भ्रम से बनाते थे कि यह पत्नी को उस के पति के निकट प्यारी और पति को उसकी पत्नी के निकट प्यारा बना देता है।

3- सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने शरीअत के नुसूस (ग्रंथों) से यह अर्थ समझा हो कि इस स्थान पर शिर्क से मुराद छोटा शिर्क है, बड़ा नहीं और इस में कोई सन्देह नहीं कि सहाबा की समझा मो’तबर (वज़नदार) है ; क्योंकि वे लोग अल्लाह के धर्म को सब से अधिक जानने वाले और शरीअत के उद्देश्य को सब से अधिक समझने वाले थे, इसके उदाहरणों में से वह हदीस है जिसे अबू दाऊद ने इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

“الطِّيَرَةُ شِرْكٌ الطِّيَرَةُ شِرْكٌ ثَلاثًا ، وَمَا مِنَّا إِلا وَلَكِنَّ اللَّهَ يُذْهِبُهُ بِالتَّوَكُّل”

“बुरा शकुन लेना शिर्क है, बुरा शकुन (फाल) लेना शिर्क है, तीन बार फरमाया, और हम में से कोई भी नहीं है मगर (उस के दिल में बुरा शकुन आ जाता है) लेकिन अल्लाह तआला तवक्कुल (अल्लाह पर विश्वास और भरोसा) के द्वारा उस का निवारण कर देता है।” [अबू दाऊद, हदीस-3910]

चुनाँचि इस हदीस में ( और हम में से कोई नहीं मगर …) का वाक्य इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु का कथन है जैसा कि हदीस के प्रमुख विद्वानों ने इसे स्पष्ट किया है। इस से पता चलता है कि इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु ने यह समझा कि यह शिर्क असग़र में से है, क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस का उद्देश्य यह हो कि हम में से कोई भी नहीं है मगर वह शिर्क अकबर (बड़े शिर्क) में पड़ जाता है, इसी तरह यह बात भी है कि अल्लाह तआला तवक्कुल के द्वारा शिर्क अकबर को समाप्त नहीं करता है, बल्कि उस से तौबा करना जरूरी है।

4- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शिर्क या कुफ्र के शब्द की इस प्रकार व्याख्या करें कि जिस से यह इंगित होता हो कि उस से अभिप्राय छोटा (शिर्क या कुफ्र) है बड़ा नहीं, जैसा कि बुखारी (हदीस संख्या: 1038)और मुस्लिम
(हदीस संख्या: 71)ने ज़ैद बिन खालिद अल-जुहनी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है

عَنْ زَيْدِ بْنِ خَالِدٍ الْجُهَنِيِّ أَنَّهُ قَالَ : صَلَّى لَنَا رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ صَلاةَ الصُّبْحِ بِالْحُدَيْبِيَةِ عَلَى إِثْرِ سَمَاءٍ كَانَتْ مِنْ اللَّيْلَةِ فَلَمَّا انْصَرَفَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَقْبَلَ عَلَى النَّاسِ فَقَالَ :”هَلْ تَدْرُونَ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمْ ؟ ” قَالُوا : اللَّهُ وَرَسُولُهُ أَعْلَمُ . قَالَ : ” أَصْبَحَ مِنْ عِبَادِي مُؤْمِنٌ بِي وَكَافِرٌ فَأَمَّا مَنْ قَالَ مُطِرْنَا بِفَضْلِ اللَّهِ وَرَحْمَتِهِ فَذَلِكَ مُؤْمِنٌ بِي كَافِرٌ بِالْكَوْكَبِ وَأَمَّا مَنْ قَالَ بِنَوْءِ كَذَا وَكَذَا فَذَلِكَ كَافِرٌ بِي مُؤْمِنٌ بِالْكَوْكَبِ “

कि उन्हों ने कहा कि : अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हुदैबिया के स्थान पर रात की बारिश के बाद हमें सुबह (फज्र) की नमाज़ पढ़ाई। जब आप नमाज़ से फारिग हुए तो लोगों का सामना किया और फरमाया : “क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे पालनहार ने क्या कहा है ?” लोगों ने कहा : अल्लाह और उस के पैग़ंबर अधिक जानते हैं। फरमाया : “मेरे बन्दों में से कुछ ने मुझ पर विश्वास रखते हुये और कुछ ने मेरे साथ कुफ्र करते हुये सुबह की। जिस ने यह कहा कि अल्लाह की दया और कृपा से हम पर बारिश हुई तो वह मुझ पर ईमान रखने वाला और सितारों का इनकार करने वाला है, और जिस ने यह कहा इस और इस नक्षत्र (तारे) के कारण बारिश हुई है वह मेरे साथ कुफ्र करने वाला और सितारे पर ईमान रखने वाला है।”

यहाँ पर कुफ्र के शब्द की व्याख्या दूसरी रिवायत में आई है जिसे अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने रिवायत किया है:

عن أبي هريرة قَالَ : قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَلَمْ تَرَوْا إِلَى مَا قَالَ رَبُّكُمْ ؟ قَالَ : “مَا أَنْعَمْتُ عَلَى عِبَادِي مِنْ نِعْمَةٍ إِلَّا أَصْبَحَ فَرِيقٌ مِنْهُمْ بِهَا كَافِرِينَ يَقُولُونَ الْكَوَاكِبُ وَبِالْكَوَاكِبِ “

 वह कहते हैं कि : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “क्या तुम ने देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया ? उस ने फरमाया : मैं ने अपने बन्दों को किसी ने’मत से सम्मानित नहीं किया मगर उन का एक दल उस की ना-शुक्री करने वाला (कृत्ध्न) हो गया, वे कहते हैं कि सितारे और सितारों के कारण।” यहाँ पर यह स्पष्ट कर दिया कि सितारों की ओर इस एतिबार से बारिश की निस्बत करना कि वे बारिश के उतरने का कारण हैं -हालांकि वास्तव में अल्लाह ने उन्हें इस का कारण नहीं बनाया है- तो उस का कुफ्र उस पर अल्लाह की ने’मत का कुफ्र (नाशुक्री) है,और यह बात ज्ञात है कि ने’मत का कुफ्र, छोटा कुफ्र है। किन्तु जो आदमी यह आस्था रखता है कि सितारे ही ब्रमह्मांड में नियंत्रण करते हैं और यह कि वही बारिश बरसाते हैं तो यह शिर्क अक्बर है।

इसी प्रकार कभी आस्थाओं (मान्यताओं) के द्वारा होता है:

जैसे कि किसी चीज़ के बारे में यह आस्था रखना कि वह लाभ पहुँचाने और हानि को रोकने का कारण है हालांकि अल्लाह तआला ने उसे इस का कारण नहीं बनाया है। या किसी चीज़ के अंदर बरकत का आस्था रखना, हालांकि अल्लाह तआला उस में बरकत नहीं रखी है। और कभी कभी कथन के द्वारा (शब्दों में) होता है:

जैसे कि किसी का यह कहना कि हम पर इस और इस सितारे के कारण बारिश हुई है ; जबकि उस का यह आस्था नहीं है कि सितारे ही स्वत: बारिश बरसाते हैं, या अल्लाह के अलावा किसी दूसरे की क़सम खाना जबकि जिसकी क़सम खाई है उसकी महानता औ अल्लाह के बराबर होने की आस्था न रखी जाये, या यह कहना कि : जो अल्लाह ने चाहा और आप ने चाहा, और इसके समान अन्य बातें। और कभी-कभी कार्यों के द्वारा होता है:

जैसे कि आपदा (मुसीबत) को टालने या हटाने के लिए ताबीज़ लटकाना, या छल्ला या धागा इत्यादि पहनना, क्योंकि जिस ने भी किसी चीज़ के लिए कोई कारण साबित किया हालाँकि अल्लाह तआला ने धार्मिक तौर पर या ब्रह्मांड के नियमों के अनुसार उसे उसके लिये कारण नहीं बनाया है, तो उस ने अल्लाह के साथ शिर्क किया। इसी तरह जो आदमी किसी चीज़ को उस से बरकत प्राप्त करने की आशा से छूता है जबकि अल्लाह तआला ने उस में बरकत नहीं रखी है, जैसे कि मस्जिदों के द्वार का चुंबन करना, उनकी चौकठों को छूना, उन की मिट्टी (धूल) से रोग निवारण चाहना, और ऐसे ही अन्य कार्य।

यह दुआ भी करनी चाहिए जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने सहाबा (साथियों) को सिखाई था जिस समय आप ने उन से फरमाया : “तुम्हारे अंदर शिर्क चींटी का चाल से भी अधिक सूक्ष्म (गुप्त) है, और मैं तुझे एक ऐसी चीज़ बताऊँगा कि जब तुम उसे कर लोगे तो वह तुम से छोटे और बड़े शिर्क को समाप्त कर देगी, तुम कहो:

“‏ اللهم إني أعوذ بك أن أشرك بك وأنا أعلم، وأستغفرك لما لا أعلم‏”

“अल्लाहुम्मा इन्नी अऊज़ो बिका अन् उश्रिका बिक व अना आ’लम, व अस्तग़फिरूका लिमा ला आ’लम”

“ऐ अल्लाह मैं इस बात से तेरे H में आता हूँ कि मैं जानबूझ कर तेरे साथ शिर्क करूँ, और मैं उस चीज़ से तेरी क्षमा चाहता हूँ जिसे मैं नहीं जानता।” ( इस हदीस को अल्बानी ने सहीहुल जामिअ़ (373) में सहीह कहा है।)
जहाँ तक हुक्म के एतिबार से उन दोनों के बीच अंतर का संबंध है:

तो वह यह है कि शिर्क अकबर(बड़ा शिर्क) इस्लाम से निष्कासित कर देता है, चुनाँचि शिर्क अकबरकरने वाले पर इस्लाम से बाहर निकल जाने और उस के मुर्तद्द हो जाने का हुक्म लगाया जायेगा, अत: वह काफिर व मुर्तद्दहो जायेगा। जहाँ तक छोटे शिर्क का संबंध है तो वह इस्लाम से बाहर नहीं निकालता है, बल्कि कभी-कभी मुसलमान से भी छोटा शिर्क हो जाता है और वह अपने इस्लाम पर बाक़ी रहता है, किन्तु उसका करने वाला एक बड़े खतरे पर होता है, क्योंकि छोटा शिर्क बड़े गुनाहों (घोर पाप) में से है, यहाँ तक कि इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु का कहना है:

 لأن أحلف بالله كاذباً أحب إليّ من أن أحلف بغيره صادقاً 

“मेरे लिए अल्लाह तआला की झूठी क़सम खाना इस बात से अधिक पसंदीदा है कि मैं अल्लाह के अलावा किसी दूसरे की सच्ची क़सम खाऊँ।”

तो आप रज़ियल्लाहु अन्हु ने गैरूल्लाह की क़सम (जो कि छोटा शिर्क है) को अल्लाह तआला की झूठी क़सम खाने से भी अधिक घृणित (घिनावना) क़रार दिया, और यह बात सर्वज्ञात है कि अल्लाह तआला की झूठी क़सम खाना कबीरा (बड़े) गुनाहों में से है।

मुशरिक के लिए जन्नत हराम है:
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अैलहि व सल्लम ने फरमाया “हलाक करने वाले गुनाहों से बचो जादू और शिर्क से” [सहीह बुख़ारी, हदीस-7/659]
मूशरिक के सारे अ’माल नाकारह (बर्बाद) हो जाते हैं: अल्लाह तआला फरमाते हैं
“यक़ीनन आप की तरफ और आप से पहले (के तमाम नबियों) की तरफ भी वही की गयी है कि अगर आप ने शिर्क किया तो बेशक आपका अमल बर्बाद हो जाएगा और आप नुकसान उठाने वालों में हो जाएंगे ।” [सूरह जुमर, आयत-65]

और अल्लाह ही सबसे बेहतर इल्म रखने वाला है।

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