इस्लाम में अक़ीदा (आस्था) का क्या अर्थ है ?

Question

इस्लाम में अक़ीदा (आस्था) का क्या अर्थ है ?

सब तारीफें अल्लाह तआला के लिए है ।

अक़ाईद उन बातों को कहा जाता है जिनकी मन गवाही दे, दिल उन से सन्तुष्ट होतें हैं, वह बातें उनके मानने वालों के नज़दीक ऐसा यक़ीन होती हैं जिन में न किसी शक़ होता है और न ही उसकी गुन्जाइश होती है। अक़ीदा का शब्द अरबी
भाषा में (अ-क-दा) के शब्द से निकला है जिस का मतलब किसी चीज़ के यक़ीनी,पक्का और मज़बूत होने के होते हैं,क्योंकि क़ुरआन नें इसी माने में अल्लाह तआला का यह फरमान है :

لَّا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغْوِ فِىٓ أَيْمَـٰنِكُمْ وَلَـٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا كَسَبَتْ قُلُوبُكُمْ ۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٌۭ

“अल्लाह तुम्हारे बेकार क़समों (के खाने) पर तो खैर पकड़ न करेगा,मगर पक्की क़सम खाने और उसके खिलाफ करने पर तो ज़रुर तुम्हारी पकड़ करेगा।” [सूरह बक़रह, आयत- 225]

कसम का पक्का करना दिल के इरादे और उसके संकल्प से होता है। कहा जाता है :(अ-क-दा अल्-हब्ला) यानि रस्सी के एक हिस्से को दूसरे हिस्से से कस दिया (यानि गांठ लगा दिया)। एतिक़ाद का शब्द “अक़्द” से निकला है। जिसका माने
बांधने और कसने के होते हैं। कहा जाता है (ए-तक़द्तो कज़ा), यानि मैंने अपने दिल में इसको पक्का कर लिया,इसलिए वह मन के पक्का होने का नाम है।
इस्लामी शरीअत में अक़ीदा का अर्थ: वो वैज्ञानिक बातें जिन पर मुसलमान के लिए अपने दिल में यक़ीन रखना और बिना किसी शक़ के उन पर पक्का यक़ीन रखना जरूरी है, क्योंकि अल्लाह तआला ने उसे उन बातों की अपनी किताब(क़ुरआन)
के जरिए या अपने पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर अपनी वह्य के जरिये ख़बर दी है।
अक़ीदे की बुनियादी बातें जिन पर यक़ीन रखने का अल्लाह तआला ने हमें हुक़्म दिया है, वो अल्लाह तआला के इस फरमान मे है:

ءَامَنَ ٱلرَّسُولُ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيْهِ مِن رَّبِّهِۦ وَٱلْمُؤْمِنُونَ ۚ كُلٌّ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَمَلَـٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍۢ مِّن رُّسُلِهِۦ ۚ وَقَالُوا۟ سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا ۖ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيْكَ ٱلْمَصِيرُ

“रसूल ईमान लाया उस चीज़ पर जो उसके पालनहार की तरफ से उसकी ओर उतारी गयी है और मोमिन लोग भी ईमान लाये,सब अल्लाह पर,उसके फरिश्तों पर,उस की किताबों पर,और उस के पैग़म्बरों (सन्देष्टाओं) पर ईमान लाये,हम उस के पैग़म्बरों में से किसी के बीच अंतर और भेद-भाव नहीं करते,और उन्हों ने कहा कि हम ने सुना और आज्ञा पालन किया,ऐ हमारे पालनहार हम तेरी क्षमा के आकांक्षी हैं,और तेरी ही तरफ पलट कर जाना है।” [सूरह अल्-बकरह,आयत-285]

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मशहूर हदीसे-जिब्रील में उन बुनियादी बातों को अपने इस फरमान के जरिए पक्का किया है :
“…أَنْ تُؤْمِنَ بِاللَّهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَتُؤْمِنَ بِالْقَدَرِ خَيْرِهِ وَشَرِّهِ…”

“…..ईमान : यह है कि तू ईमान लाये (पक्का विश्वास रखे) अल्लाह पर,उस के फरिश्तों पर,उस की किताब पर,उस की मुलाक़ात पर,उस के सन्देष्टाओं पर,तथा तू ईमान लाये मरने के बाद पुन: जीवित करके उठाये जाने पर….।” [सहीह मुस्लिम, हदीस-8]
इस्लाम में अक़ीदा से माने वो वैज्ञानिक बातें और मसाइल हैं जिनका क़ुरआन और हदीस में सहीह तौर पर सबूत हैं और जिन पर एक मुसलमान के लिए अल्लाह और उसके रसूल की पुष्टी करते हुए अपने दिल में पक्का यक़ीन रख़ना जरूरी है।

इस्लामी अक़ीदा न तो नज़रियाती तरीक़ा है और न ही फल्सफयाना तरीक़ा है, अमल(कर्म) इस अक़ीदे का ज़रूरी भाग है। इसलिए अहले सुन्नत इस बात पर सहमत हैं कि ईमान (यक़ीन) में शब्द और अमल (कर्म) या ज़बान से गवाही देना या दिल में यक़ीन रखना और उन पर अमल करना दोनों बातें शामिल हैं ।

जो व्यक्ति भी अल्लाह को अपना अपना पालनहार यक़ीनी तौर पर मानता है वह उसकी इबादत नमाज़,जक़ात,रोज़ा,हज्ज इत्यादि के जरिए जरूर करेगा । जो व्यक्ति भी आखिरत के दिन पर और दुबारा जिन्दा करके उठाए जाने और अल्लाह
की तरफ से अच्छा बदला दिए जाने या सजा दिए जाने पर यक़ीन रखता है, वह उन बातों को करने में तत्पर रहेगा जिनका अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है और उन बातों से बचेगा जिनको अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)
ने मना फरमाया है।
इसलिए जो व्यक्ति हजरत मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अल्लाह का रसूल मानेगा वह उनकी बातों और उनकी सुन्नत पर अमल करेगा और उनके दीन को दूसरों तक पहुँचाएगा।

इसलिए एक आदमी के ईमान(यक़ीन) को अगर आसान भाषा में समझा जाए तो इसमें ज़बान, अमल(कर्म) और कोशिश (प्रयास) शामिल है ।

जितना ज्यादा ईमान(यक़ीन) आदमी के दिल में बढ़ेगा उतना ही ज्यादा इसका असर उसके जिन्दगी में देखा जाएगा, वह और अधिक अल्लाह की बातों पर अमल करता नज़र आएगा।

रसूलुल्लाह सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

وَإِنَّ فِي الْجَسَدِ مُضْغَةً إِذَا صَلَحَتْ صَلَحَ الْجَسَدُ كُلُّهُ وَإِذَا فَسَدَتْ فَسَدَ الْجَسَدُ كُلُّهُ أَلاَ وَهِيَ الْقَلْبُ ‏….”
“और शरीर में एक गोश्त का लोथड़ा है अगर वह अच्छा है तो सारा शरीरअच्छा है और अगर वह बिगड़ जाए तो सारा शरीर भ्रष्ट हो जाएगा और वह दिल है” [सहीह बुख़ारी, हदीस-52, सहीह मुस्लिम, हदीस-1599]

हसन अल्-बसरी (रहिमहुल्लाह) फरमाते हैं :

” ليس الإيمان بالتمني ولا بالتحلي ، ولكن ما وقر في القلب وصدقه العمل “

“ईमान ख़्वाहिशों और बाहरी दिखावे का विषय नहीं है, बल्कि यह वह चीज़ है जो दिल में यक़ीनी तौर पर बैठ जाता है और इसकी गवाही इन्सान के अमल के जरिए मिलती है।”

शैख़ इब्न तैमियाह(रहिमहुल्लाह) फहमाते हैं:
فإذا كان القلب صالحا بما فيه من الإيمان علما وعملا قلبيا لزم ضرورةً صلاح الجسد بالقول الظاهر والعمل بالإيمان المطلق ، كما قال أئمة أهل الحديث : قول وعمل ، قول باطن وظاهر ، وعمل باطن وظاهر
، والظاهر تابع للباطن لازم له ، متى صلح الباطن صلح الظاهر ، وإذا فسد فسد ، ولهذا قال من قال من الصحابة عن المصلى العابث : لو خشع قلب هذا لخشعت جوارحه

“यदि दिल ईमान,ईल्म और दिल के अमल के साथ सही व सालेह हो तो जाहिरी बातों और अमल के साथ दिल की दुरूस्तगी जरूरी है, जैसा कि हदीस के आलिमों ने फरमाया: कथनी और करनी, दोनो जाहिरी और बातिनी,जो बाहिरी है वह बातिनी का अनुसरण करे, इसलिए अगर बातिन सही होगा तो जाहिर भी सही रहेगा, इसलिए एक सहाबी(रज़ि.) ने लापरवाही से नमाज़ पढ़ने वाले नमाज़ी के बारे में फरमाया: “अगर इसका दिल विनम्र और केन्द्रित होता तो इसका शरीर भी विनम्र और केन्द्रित होता””
[मजमुअ् अल्-फतावा, 7/187]

अल्लाह सबसे बेहतर इल्म रखने वाला है।

स्रोत: islamqa(dot)info

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